
सत्य ऋषि
गौड़पाद (300 ई.) और उनके अनुवर्ती आदि शंकराचार्य (700 ई.) ब्रह्म को प्रधान मान कर जीव और जगत को उससे अभिन्न मानते हैं। उनके अनुसार, तत्व को उत्पत्ति और विनाश से रहित होना चाहिए। नाशवान जगत तत्वशून्य है। जीव भी जैसा दिखाई देता है, वैसा वास्तव में नहीं है। जाग्रत और स्वप्नावस्थाओं में जीव जगत में रहता है, लेकिन सुषुप्ति में जीव प्रपंच ज्ञानशून्य चेतनावस्था में रहता है।
इससे सिद्ध होता है कि जीव का शुद्ध रूप सुषुप्ति जैसा होना चाहिए। सुषुप्ति अवस्था अनित्य है। अत: इससे परे तुरीयावस्था को जीव का शुद्ध रूप माना जाता है। इस अवस्था में नश्वर जगत से कोई संबंध नहीं होता और जीव को पुन: नश्वर जगत में प्रवेश भी नहीं करना पड़ता। यह तुरीयावस्था अभ्यास से प्राप्त होती है। ब्रह्म-जीव-जगत में अभेद का ज्ञान उत्पन्न होने पर जगत जीव में और जीव ब्रह्म में लीन हो जाता है।
क्या जाग्रत संसार भी जीव की कल्पना है?
तीनों में वास्तविक अभेद होने पर भी अज्ञान के कारण जीव जगत को अपने से पृथक समझता है। परंतु स्वप्न संसार की तरह जाग्रत संसार भी जीव की कल्पना है। भेद इतना ही है कि स्वप्न व्यक्तिगत कल्पना का परिणाम है जबकि जाग्रत अनुभव-समष्टि-गत महाकल्पना का। स्वप्न जगत् का ज्ञान होने पर दोनों में मिथ्यात्व सिद्ध है।
परंतु बौद्धों की तरह वेदान्त में जीव को जगत का अंग होने के कारण मिथ्या नहीं माना जाता। मिथ्यात्व का अनुभव करने वाला जीव परम सत्य है। उसे मिथ्या मानने पर सभी ज्ञान को मिथ्या मानना होगा। परंतु जिस रूप में जीव संसार में व्यवहार करता है, उसका वह रूप अवश्य मिथ्या है। जीव की तुरीयावस्था भेदज्ञान शून्य शुद्धावस्था है। ज्ञाता-ज्ञेय-ज्ञान का संबंध मिथ्या संबंध है।
अद्वैत अवस्था को कहते हैं ब्रह्म
इनसे परे होकर जीव अपनी शुद्ध चेतनावस्था को प्राप्त होता है। इस अवस्था में भेद का लेश भी नहीं है क्योंकि भेद द्वैत में होता है। इसी अद्वैत अवस्था को ब्रह्म कहते हैं। तत्व असीम होता है, यदि दूसरा तत्व भी हो तो पहले तत्व की सीमा हो जाएगी और सीमित हो जाने से वह तत्व बुद्धिगम्य होगा जिसमें ज्ञाता-ज्ञेय-ज्ञान का भेद प्रतिभासित होने लगेगा।
अनुभव साक्षी है कि सभी ज्ञेय वस्तुएं नश्वर हैं। अत: यदि हम तत्व को अनश्वर मानते हैं तो हमें उसे अद्वय, अज्ञेय, शुद्ध चैतन्य मानना ही होगा। ऐसे तत्व को मान कर जगत की अनुभूयमान स्थिति का हमें विवर्तवाद के सहारे व्याख्यान करना होगा। रस्सी में प्रतिभासित होने वाले सर्प की तरह यह जगत न तो सत है, न असत है। सत होता तो इसका कभी नाश न होता, असत होता तो सुख, दु:ख का अनुभव न होता।
अज्ञान को जगत का कारण माना गया
अत: सत असत से विलक्षण अनिवर्चनीय अवस्था ही वास्तविक अवस्था हो सकती है। उपनिषदों में नेति कह कर इसी अज्ञातावस्था का प्रतिपादन किया गया है। अज्ञान भाव रूप है क्योंकि इससे वस्तु के अस्तित्व की उपलब्धि होती है। यह अभाव रूप है, क्योंकि इसका वास्तविक रूप कुछ भी नहीं है। इसी अज्ञान को जगत का कारण माना जाता है।
अज्ञान का ब्रह्म के साथ क्या संबंध है, इसका सही उत्तर कठिन है। परंतु ब्रह्म अपने शुद्ध निर्गुण रूप में अज्ञान विरहित है। किसी तरह वह भावाभाव विलक्षण अज्ञान से आवृत्त होकर सगुण ईश्वर कहलाने लगता है और इस तरह सृष्टिक्रम चालू हो जाता है। ईश्वर को अपने शुद्ध रूप का ज्ञान होता है। जीव को अपने ब्रह्मरूप का ज्ञान प्राप्त करने के लिए साधना से ब्रह्मीभूत होना पड़ता है।
गुरु के मुख से ‘तत्वमसि’ का उपदेश सुन कर जीव ‘अहं ब्रह्मास्मि’ का अनुभव करता है। उस अवस्था में संपूर्ण जगत को आत्ममय और अपने में सम्पूर्ण जगत् को देखता है क्योंकि उस समय उसके (ब्रह्म) के अतिरिक्त कोई तत्व नहीं होता। इसी अवस्था को तुरीयावस्था या मोक्ष कहते हैं। आगे हम विशिष्टाद्वैत वेदान्त की चर्चा करेंगे। तब तक के लिए सत्य को प्रणाम।