वैदिक काल में सवाल नहीं पूछे जाते थे। गुरु के बताए मार्ग पर सभी को चलना होता था। इसकी एक वजह गुरु के प्रति समर्पण का भाव रहा होगा। लेकिन वैदिक काल के अंत तक सवाल मुखर होने लगे थे। उन्हीं सवालों का समाधान गुरु करते थे। प्रश्न—उत्तर के रूप में सत्य का रहस्य जानने की कोशिश की जाने लगी। इन्हीं प्रश्न और उत्तर को संग्रहीत करके उपनिषदों की रचना हुई।
दरअसल, आरम्भ में उपनिषदों के लिए ‘वेदान्त’ शब्द का प्रयोग हुआ। लेकिन बाद में उपनिषदों के सिद्धान्तों को आधार मान कर जिन विचारों का विकास हुआ, उनके लिए भी ‘वेदान्त’ शब्द का प्रयोग होने लगा। उपनिषदों के लिए ‘वेदान्त’ शब्द के प्रयोग के तीन कारण बताए जाते हैं।
पहला कारण उपनिषद ‘वेद’ के अन्त में आते हैं। ‘वेद’ के अन्दर प्रथमतः वैदिक संहिताएं-ऋक्, यजुः, साम और अथर्व आती हैं। इनके उपरान्त ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद आते हैं। वेद के अन्त में होने के कारण उपनिषदों को ही वेदांत कहा जाता है।
उपनिषद वेदों के विचारों का परिपक्व रूप
तीसरा कारण है उपनिषदों में वेदों का ‘अन्त’ अर्थात् वेदों के विचारों का परिपक्व रूप है। यह माना जाता था कि वेद-वेदांग आदि सभी शास्त्रों का अध्ययन कर लेने पर भी बिना उपनिषदों की शिक्षा प्राप्त किए मनुष्य का ज्ञान पूर्ण नहीं होता था।
आचार्य उदयवीर शास्त्री के अनुसार ‘वेदान्त’ पद का तात्पर्य है कि वेदादि में विधिपूर्वक अध्ययन, मनन और उपासना आदि के अन्त में जो तत्त्व जाना जाए उस तत्त्व का विशेष रूप से जहां निरूपण किया गया हो, उस शास्त्र को ‘वेदान्त’ कहा जाता है।
वेदांत का साहित्य और उपनिषदें
इन उपनिषदों के दार्शनिक सिद्धान्तों में काफी कुछ समानता है। लेकिन अनेक स्थानों पर विरोध भी प्रतीत होता है। कालान्तर में आवश्यकता अनुभव की गई कि विरोधी प्रतीत होने वाले विचारों में समन्वय स्थापित कर सर्वसम्मत उपदेशों का संकलन किया जाए। इसी आवश्यकता की पूर्ति के लिए बादरायण व्यास ने ब्रह्मसूत्र की रचना की जिसे वेदान्त सूत्र, शारीरकसूत्र, शारीरक मीमांसा या उत्तरमीमांसा भी कहा जाता है।
इसमें उपनिषदों के सिद्धान्तों को अत्यन्त संक्षेप और सूत्र रूप में संकलित किया गया है। अत्यधिक संक्षेप में होने के कारण सूत्रों में अपने आप में अस्पष्टता है और उन्हें बिना भाष्य या टीका के समझना सम्भव नहीं है। इसीलिए अनेक भाष्यकारों ने अपने-अपने भाष्यों से इनके अभिप्राय को स्पष्ट करने का प्रयत्न किया।
वेदान्त सम्प्रदाय के प्रवर्तक बन गए भाष्यकार
बाद में इन भाष्यों पर टीकाएं और टीकाओं पर टीकाओं का क्रम चला। अपने-अपने सम्प्रदाय के मत को पुष्ट करने के लिए अनेक स्वतन्त्र ग्रन्थों की भी रचना हुई, जिनसे वेदान्त का साहित्य अत्यन्त विशाल हो गया। ऐतिहासिक रूप से किसी गुरु के लिए आचार्य बनने, समझे जाने के लिए वेदान्त की पुस्तकों पर टीकाएं या भाष्य लिखने पड़ते हैं।
इन पुस्तकों में तीन महत्वपूर्ण पुस्तक शामिल हैं। उपनिषद, भगवद गीता और ब्रह्मसूत्र। इन्हें प्रस्थानत्रयी कहते हैं। उसके अनुसार आदि शंकराचार्य, रामानुज और मध्वाचार्य तीनों ने इन तीन महत्वपूर्ण पुस्तकों पर विशिष्ट रचनाएं की हैं। तीनों ग्रंथों में प्रगट विचारों का कई तरह से व्याख्यान किया जा सकता है।
यही वजह है कि ब्रह्म, जीव और जगत के संबंध में अनेक मत सामने आए और वेदान्त के अनेक रूपों का निर्माण हुआ। विचारों में साम्य के आधार पर अलग अलग संप्रदायों के अनुयायी भी सामने आए और अपने अपने मत का प्रचार करने में लग गए। आगे हम अद्वैत वेदांत पर चर्चा करेंगे। तब तक के लिए सत्य को प्रणाम।