
जो लोग मोदी को देश का उद्धारक समझ रहे हैं, वे यह भलीभांति समझ लें कि ये महाशय किसान, मजदूर और युवाओं का हक मार कर पूंजीपतियों को मालामाल करने में लगे हैं। यही वजह है कि कोरोना काल का फायदा उठा कर पूंजीपतियों के पक्ष में कानून बनाए जा रहे हैं। पूंजीपतियों की गोद में बैठकर देश चला रहे मोदी मनमानी नीतियां लागू कर रहे हैं।
मतलब, अपनी हठधर्मिता के लिए उन्होंने देश के लोगों के भविष्य को दांव पर लगा दिया है। किसान बिल के पास कराने के मामले में किसान सड़कों पर हैं। देश में बेरोजगारी के चरम पर पहुंचने और बड़े स्तर पर छंटनी से युवाओं का भविष्य अंधकारमय हो गया है। किसानों को पूंजीपतियों के यहां बंधुआ बनाने की तैयारी भी पूरी तरह से कर ली गई है।
किसानों के साथ ही श्रमिकों को भी पूंजीपतियों के यहां बंधुआ बनाने की साजिश रची जा रही है। श्रम कानूनों में संशोधन को चोरी छिपे बिना चर्चा के पेश करना और बिना बहस के उसे पास कराना श्रमिकों को पूंजीपतियों के यहां बंधुआ बनवाने की ही साजिश है। संविधान में श्रमिकों के अधिकार को इस संशोधन बिल के जरिये समाप्त कर दिया गया है।
श्रम संशोधन बिल में 300 कर्मचरियों से कम मैन पावर के किसी भी संस्थान को बंद करने का अधिकार मोदी सरकार ने कंपनी मालिकों को दे दिया है। मतलब ऐसा करने के लिए अब पूंजीपतियों को किसी की अनुमति लेने की कोई जरूरत नहीं होगी।
इस संशोधन में किसी भी कर्मचारी की सेवासमाप्ति और छंटनी को जायज कर दिया गया है। मतलब प्रभावित श्रमिक उसकी कहीं पर शिकायत भी नहीं कर सकता है। श्रमिकों को वर्षों से प्राप्त औद्योगिक विवाद अधिनियम 1947 को खत्म कर दिया गया है। इससे सामाजिक सुरक्षा के हनन के साथ ही रोजगार की गारंटी को भी पूंजीपतियों के हवाले कर दिया गया है।
जो पत्रकार मोदी सरकार को महिमामंडित करते थकते नहीं हैं, वे भी देख लें कि इस श्रम संशोधन बिल से पूर्व पत्रकार व गैर पत्रकार के हितों की सुरक्षा के लिए वेज बोर्ड नए बिल में समाप्त कर दिया गया है।
अब दुकान कर्मचारी की भांति पत्रकारों को सिर्फ महंगाई भत्ता दिया जाएगा। आने वाले दिनों में इस बिल की आड़ में बैंक, बीमा, रेलवे, भेल, कोल आदि संस्थानों में भी वेज बोर्ड को खत्म कर दिया जाएगा। मतलब पूरी तरह से निजीकरण। यह श्रम संशोधन बिल एक तानाशाह शासक की सनक ही है।
जो लोग अभी भी मोदी सरकार में उम्मीदें तलाश रहे हैं, वे समझ लें कि इस संशोधन से देश के 70 प्रतिशत कर्मचारी असुरक्षित हो गए हैं। जो बिल लाया गया है, उस बिल के तहत राज्य बीमा कर्मचारी निगम, कर्मचारी भविष्य निधि के जरिये जो सामजिक सुरक्षा थी वह मिलेगी या नहीं, यह कहना भी मुश्किल हो गया है। यह अंधेरे में रखा गया है।
श्रम संशोधन बिल में न्यूनतम मजदूरी पाने का जो कामगारों का अधिकार है, उसे भी छीन लिया गया है। श्रम संशोधन बिल में वर्ष 1926 में बने ट्रेड यूनियन ऐक्ट को भी निष्प्रभावी कर दिया गया है। मतलब, श्रमिक पूंजीपतियों के यहां बंधुआ बनकर रह जाएगा। इनके हक की लड़ाई लड़ने के लिए कोई ट्रेड यूनियन भी नहीं होगी।
अब कर्मचारी कोई यूनियन बनाना चाहेंगे तो उस संस्थान से अनुमति लेनी होगी। क्योंकि कोई संस्थान यूनियन बनाने की अनुमति नहीं देगा तो किसी संस्थान में कोई यूनियन नहीं बन पाएगी। यदि बनेगी भी तो मालिक की जेब की होगी। मतलब, कर्मचारियों के लिए नहीं मालिक के लिए काम करेगी।
उत्तर प्रदेश सरकार ने इस बिल की आड़ में 39 श्रम कानूनों में 36 को अगले तीन वर्षों के लिए स्थगित कर दिया है। कहा जा रहा था कि चीन से आने वाली कंपनियों के लिए यह संशोधन किया गया है। क्या चीनी कंपनियां आ गईं?
साजिश कितनी बड़ी है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इस बिल के आने से पूर्व श्रम कानूनों में वेतन न दिए जाने पर सर्वोच्च न्यायालय ने भी कह दिया कि सेवायोजक व कामगार आपसी बातचीत से समस्या का समाधान करें। क्या ऐसे कोई समाधान निकलेगा? निजी कंपनियों के मालिक कोर्ट में घसीटने पर तो अपनी हरकतों से बाज नहीं आते।
इस बिल के तहत ग्रेचुटी ऐक्ट में जो नियमित कामगार भुगतान रजिस्टर में होंगे, वे एक वर्ष बाद सिर्फ उपादान राशि प्राप्त करने के हकदार होंगे। ऐसे में कैजुअल, पार्टटाइम और संविदा कर्मचारियों को कुछ भी नहीं मिलेगा।