
हिंदी साहित्य के विकास में जिन विभूतियों का बड़ा योगदान रहा है, उनमें प्रमुख रहे हैं बाबू श्याम सुंदर दास। उन्होंने भातेंदु हरिश्चंद्र के कार्य को आगे बढ़ाया और हिंदी को एक मुकाम तक पहुंचाया। हिंदी को शब्दों से समृद्ध करने में उन्होंने भगीरथ प्रयास किए।
दरअसल, हिंदी या कोई भी भाषा तब तक नहीं बढ़ सकती, जब तक उसका ज्ञान भंडार विपुल न हो। उसकी शब्द संपदा ज्ञानाभिव्यक्ति में पूर्ण सक्षम न हो, उसका साहित्य जनमंगल का मूल न हो और ज्ञान-विज्ञान से परिपूर्ण न हो। बाबू श्यामसुंदरदास ने हिंदी को ज्ञान-विज्ञानमयी बनाने का सफल प्रयत्न किया।
नागरी प्रचारिणी सभा के प्रधानमंत्री डॉ. पद्माकर पांडेय के मुताबिक, 19वीं शताब्दी में जिन विभूतियों ने जन्म लिया, उनमें बाबू श्यामसुंदर दास ऐसे हस्ताक्षर हैं, जिन्होंने भारतेंदु जी द्वारा डाली गई नींव पर हिंदी का भव्य प्रसाद निर्मित किया। उन्होंने हिंदी के सपने को साकार करने का जो सफल प्रयत्न किया, वह अनन्य अकेला और मौलिक है।
संस्थाएं स्थापित होती हैं, मिटती हैं और नई बनती हैं, किंतु किसी संस्था को ऐसी नींव देना जो गंगा की तरह सतत प्रवाहमान हो, भागीरथ का ही काम हो सकता है। ऐसी ही संस्था नागरी प्रचारिणी सभा को उन्होंने जन्म दिया, इसलिए वे हिंदी के भागीरथ हैं।
डॉ. पद्माकर पांडेय के अनुसार, बाबू श्यामसुंदर दास केवल नागरी प्रचारिणी सभा की स्थापना कर ही मौन नहीं रहे, हिंदी साहित्य सम्मेलन के भी वे अनुष्ठाता थे। हिंदी साहित्य सम्मेलन से ही दक्षिण भारतीय हिंदी प्रचार सभा, राष्ट्रभाषा प्रचार समिति और अन्यान्य हिंदी संस्थाओं का उदय हुआ। इस प्रकार सभा हिंदी संस्थाओं की जननी है और वे हिंदी संस्थाओं के पितामह हैं।
उन्होंने सर्वप्रथम हिंदी में आधुनिक भारतीय भाषाओं के विशाल कोश हिंदी शब्दसागर का लाखों रुपये व्ययभार से चार खंडों में प्रकाशन कराया। हिंदी का प्रमाणिक व्याकरण कामता प्रसाद गुरु के माध्यम से प्रस्तुत कराया। आचार्य रामचंद्र शुक्ल के माध्यम से हिंदी को उसके साहित्य का इतिहास दिलाया।
सहायक मंत्री सभाजीत शुक्ला का कहना है कि बाबू श्यामसुंदर दास जी हिंदी को केवल राष्ट्रभाषा नहीं, अपितु अंतरराष्ट्रीय भाषा मानते थे। संविधान में हिंदी का जो रूप है, उसी स्वरूप के वह प्रचारक रहे हैं, जिसे उनके अवसान के बाद देश ने ग्रहण किया। काशी हिंदू विश्वविद्यालय में मालवीय जी ने 1921 में उन्हें हिंदी विभाग का अध्यक्ष बनाया। उस समय तक देश में हिंदी की पढ़ाई एमए कक्षाओं तक नहीं होती थी।
उन्होंने उसकी योजना बनाई, पाठ्यक्रम बनाया, पुस्तकें तैयार कराईं और उसे ऐसा रूप दिया, जिसे सारे देश ने स्वीकार किया। आज हिंदी की उच्च शिक्षा का जो रूप दिखाई पड़ रहा है, उसके जनक के रूप में उनकी प्रतिष्ठा है।
हिंदी के काम के लिए उन्होंने देश भर के रत्नों को चुना। उनका उपयोग किया और शिष्यों की ऐसी मंडली बनाई, जिन्होंने भविष्य में अपने-अपने क्षेत्र में नियामक कार्य किए। इस दृष्टि से वे हिंदी रत्नों के रत्नाकार हैं।