खड़ी बोली का आधुनिक साहित्य भारतेंदुयुग (1857-1900 ई.) की देन है। वैसे मध्यकालीन भक्ति और शृंगार की भाषा ब्रजभाषा ही रही। लेकिन जनजागरण, समाज सुधार संबंधी काव्य खड़ी बोली में लिखा गया।
18वीं शताब्दी से ही प्रचलित सधुक्कड़ी खड़ी बोली में रचित सीतल और भगवतरसिक, सहचरीशरण आदि संतों की वाणी और 19वीं शताब्दी के रितालगिरि, तुकनगिरि, रूपकिशोर आदि लावनीकारों की लावनी परंपरा में भी इस युग में लावनी, गजल और उद्बोधनात्मक कविताएं लिखी गईं। फिर भी खड़ी बोली का यह प्रयोगयुग था और भारतेंदु को शिकायत थी कि खड़ी बोली में कविता जमती नहीं।
भारतेंदु युग के अंत में (1886-87) काव्यभाषा खड़ी हो या ब्रज, इस विवाद में श्रीधर पाठक के एकांतवासी योगी (1886 ई.) ने खड़ी बोली की काव्योपयुक्तता सिद्ध कर दी। अत: द्विवेदीयुगीन द्वितीय काव्यधारा में (1900-1920) खड़ी बोली में मुक्तक और प्रबंधकाव्यों की रचना हुई। रंग में भंग, जयद्रथ वध, (1912), प्रियप्रवास (1912), रामचरितचिंतामणि, पथिक (1917), मिलन (1925) आदि प्रबंधकाव्यों में प्राचीन, नवीन वीरों का चरित गायन हुआ।
“प्रियप्रवास” में भगवान कृष्ण को जननायक रूप में चित्रित किया गया और पथिक में देशभक्ति की अनुपम झांकी प्रस्तुत की गई। रीतिकालीन नायिकाभेद, उद्दाम शृंगार, उद्दीपनपरक प्रकृतिचित्रण और कवित्त, सवैयों के स्थान पर, आर्यसमाज और नवराष्ट्रजागरण के कारण मर्यादामय प्रेम, प्रकृति के आलंबनगत चित्रण, नवीन गीतिका, हरगीतिका आदि छंदों, संस्कृत के वर्णवृत्तों का प्रयोग, समाज सुधारात्मक और इतिवृत्तात्मक पद्यों की रचना, इस युग की प्रमुख प्रवृत्तियां हैं।
महावीरप्रसाद द्विवेदी, मैथिलीशरण गुप्त, रामचरित उपाध्याय, बालमुकुंद गुप्त, सियारामशरण गुप्त, नाथूराम शर्मा “शंकर”, अयोध्यासिंह उपाध्याय, रूपनारायण पांडेय, लोचनप्रसाद पांडेय और श्रीधर पाठक के प्रयत्न से खड़ी बोली की काव्योपयुक्तता का निर्णय हो गया। प्रियप्रवास और भारतभारती इस युग की विशिष्ट कृतियां मानी जाती हैं।
छायावाद और रहस्यवाद (1920-35) तृतीय काव्यधारा है। 19वीं और 20वीं शताब्दी में अंग्रेजी शिक्षा संस्थाओं के कारण अंग्रेजी के स्वच्छंदतावादी काव्य का प्रभाव प्रत्यक्षत: और अप्रत्यक्षत: बंगला के माध्यम से हिंदी काव्य पर पड़ा।
अत: तृतीय धारा के छायावादी और रहस्यवादी काव्य में द्विवेदीयुगीन स्थूल मर्यादावाद, प्रवचनात्मकता और विवरणात्मक प्रकृति चित्रण के स्थान पर स्वच्छंद प्रेम की पुकार, प्रेयसी का देवीकरण, अंतरराष्ट्रीयता और विश्वमानववाद, प्रकृति और प्रेयसी के माध्यम से निजी आशानिराशाओं का वर्णन, प्रकृति पर चेतना का आरोप, सौंदर्य अनुसंधान, अलौकिक से प्रेम के कारण द्विवेदीयुगीन स्थूल संघर्ष से पलायन, गीतात्मकता, लक्षण, विशेषणविपर्यय और भाषा का कोमलीकरण प्रत्यक्ष और प्रमुख प्रवृत्तियां हैं।
प्रसाद (आँसू, लहर, झरना, कामायनी), सुमित्रानंदन पंत (पल्लव, गुंजन), निराला (जुही की कली, गीतिका के गीत आदि) और महादेवी ने परोक्ष सत्ता को प्रेम का विषय बनाकर प्रकृति में उसके आभास, आत्मनिवेदन और संयोगवियोग की कलात्मक अभिव्यक्तियों से काव्य को अलंकृत, लाक्षणिक, गीत्यात्मक और सूक्ष्म बनाया।
द्विवेदीयुगीन राष्ट्रीयता की गूँज इन कवियों में यत्र तत्र मिलती है। विशेषकर निराला के बादलराग, जागो फिर एक बार आदि कृतियों में। पुनर्जागरण का पौरुषपरक रूप निराला में (राम की शक्तिपूजा) और सांस्कृतिक रूप उपनिषदों के ब्रह्मवादी दर्शन में मिला। कामायनी तृतीय धारा की सर्वोत्कृष्ट कृति है जिसमें रहस्यमय सत्ता की प्राप्ति के आवरण में पुरुष नारी, राजा प्रजा, प्रकृति पुरुष और मानवीय वृत्तियों में सामरस्य स्थापित करने का संदेश प्रस्तुत किया गया।
तृतीय धारा में निराला ने मुक्त छंदों, पंत ने संस्कृत वर्णवृत्तों के स्थान पर हिंदी के छंदों, महादेवी और प्रसाद ने गेय गीतों का प्रयोग किया। प्रकृति और प्रेम के भव्य, मार्मिक चित्रण इस युग की विशिष्ट उपलब्धियां हैं। अंगरेजी के शेली, कीट्स और बंगला के कवींद्र रवींद्र से प्रभावित होने पर हिंदी का छायावादी रहस्यवादी काव्य अपनी विशिष्टता की दृष्टि से मौलिक और मार्मिक है।
कामायनी में चिंता, आशा, वासनादि मनोवृत्तियों, निराला के तुलसीदास और राम की शक्तिपूजा में मानसिक अंतर्द्वद्वों, महादेवी के गीतों में मीरा जैसी विरह वेदना और पंत के प्रकृतिचित्रण में सौंदर्यविधान इतना आकर्षक हुआ है कि यह युग हिंदी काव्य का स्वर्णयुग कहा जाता है। भाषा का श्रृंगार और सांकेतिक शक्ति का विकास अपनी चरम सीमा पर इसी युग में पहुंचा।