Bhikhari Thakur: भोजपुरी के महान लोक कलाकार भिखारी ठाकुर आज ही के दिन यानी 18 दिसंबर 1887 को पैदा हुए थे । वह भोजपुरी के विलक्षण कलाकार थे। भोजपुरी बिहार और उत्तर प्रदेश के एक विस्तृत अंचल की आत्मीय भाषा है। वह प्रतिभाशाली अभिनेता और कुशल निर्देशक थे।
Bhikhari Thakur: जन्म दिवस पर विशेष, यादें अवशेष
राजीव कुमार झा
Bhikhari Thakur: हमारे देश में सदियों से लोककला की महान परंपरा में साहित्य, संगीत और नाटक इन तमाम कलारूपों के श्रेष्ठ कलाकारों का आविर्भाव यहां की पावन धरती पर होता रहा है। और भारतीय लोककला अपनी विराट चेतना से मनुष्य के जीवन को आनंद और मंगल की भावना से अनुप्राणित करती रही है। भिखारी ठाकुर उसी कला के विलक्षण सूत्रधार थे।
उनका जन्म 18 दिसंबर को बिहार के तत्कालीन सारण जिले के कुतुबपुर (दियारा) गाँव में एक नाई परिवार में हुआ था। एक गीत में भिखारी ठाकुर ने अपने इस गाँव को याद भी किया है। उनके पिताजी का नाम दल सिंगार ठाकुर और माताजी का नाम शिवकली देवी था।
भिखारी ठाकुर के जमाने में रामलीला मंडलियाँ खूब प्रचलित थीं। और इन्होंने भी बड़े होने पर रामलीला मंडली बनायी और आसपास के गाँवों में घूम-घूम कर रामलीलाओं का मंचन करने लगे। वे जीविकोपार्जन के लिये गाँव छोड़कर खड़गपुर चले गये। वहाँ उन्होने काफी पैसा कमाया किन्तु वे अपने काम से संतुष्ट नहीं थे। रामलीला में उनका मन बस गया था। इसके बाद वे जगन्नाथपुरी चले गये।
गायन में भी महारत
गायन में भी इन्हें महारत हासिल थी। और आगे नाट्य लेखन भी किया। इनके लिखे नाटकों में विदेशिया सर्वाधिक लोकप्रिय है। और इसमें नौकरी की तलाश में शहरों में गये ग्रामीण युवाओं में जीवन के भटकाव के अलावा गाँव की औरतों के दुख दर्द का मार्मिक चित्रण है।
इनके लिखे अन्य नाटकों में गोबरघिचोर, गंगा स्नान और भाई विरोध प्रमुख हैं। भिखारी ठाकुर के नाटक समाज में स्त्री जीवन की विसंगतियों के अलावा जाति प्रथा और छुआछूत का विरोध करने में मुखर हैं। इनमें समाज, संस्कृति और धर्म के पाखंड का चित्रण है। भिखारी ठाकुर लोक जागरण के कलाकार थे और उन्होंने भोजपुर अंचल में नयी जीवन चेतना का संचार किया।
ठाकुर को भोजपुरी और संस्कृति का बड़ा झंडा वाहक माना जाता है। भोजपुरी झारखंड, पूर्वी उत्तर प्रदेश और बंगाल के कुछ हिस्सों और बिहार के प्रमुख हिस्सों में व्यापक रूप से बोली जाती है। वह इस भाषाई क्षेत्र में ही लोकप्रिय नहीं हैं बल्कि उन शहरों में भी जहां बिहारी श्रमिक अपनी आजीविका के लिए चले गए।
आलोचना भी झेलनी पड़ी
कई ने सामंत और ब्राह्मणवादी मूल्यों को कायम रखने के लिए उनकी आलोचना की, जो कुछ हद तक सच हो सकते हैं। अपने कार्यों में कुछ ब्राह्मण और सामंती मूल्यों के समर्थन और वैधता के बावजूद उन्होंने हमेशा एक समानता और समतावादी समाज की दृष्टि से पहल की है और यह हमें समझना चाहिए। ब्राह्मणवादी मूल्यों के इन मूर्खतापूर्ण और अतर्कसंगत छायाओं के तहत समतावादी और उपलक्ष्य समाज की कोई भी कल्पना नहीं की जा सकती।
यद्यपि उनके नाटक गांवों और ग्रामीण समाज के चारों ओर विकसित हुए, वे अभी भी कोलकाता, पटना, बनारस और अन्य छोटे शहरों जैसे बड़े शहरों में बहुत प्रसिद्ध हो गए, जहां प्रवासी मजदूरों और गरीब श्रमिक अपनी आजीविका की खोज में गए। देश की सभी सीमाएं तोड़कर उन्होंने अपनी मंडली के साथ-साथ मॉरीशस, केन्या, सिंगापुर, नेपाल, ब्रिटिश गुयाना, सूरीनाम, युगांडा, म्यांमार, मैडागास्कर, दक्षिण अफ्रीका, फिजी, त्रिनिडाड और अन्य जगहों पर भी दौरा किया, जहां भोजपुरी संस्कृति कम या ज्यादा समृद्ध है।
उनकी पुस्तकों की भाषा बहुत सरल थी जिससे लोग बहुत आकृष्ट हुए। उनकी किताबें वाराणसी, हावड़ा एवं छपरा से प्रकाशित हुईं। 10 जुलाई 1971 को 84 वर्ष की आयु में उनका निधन हो गया। उनके लिखे गीतों में जीवन के समस्त भावों का समावेश है। और देश की पावन माटी का इनमें स्तवन है। उनके जन्म दिन पर उन्हें याद करना और नमन करना हमारा दायित्व है।