Bihar election: बिहार में भले ही तेजस्वी यादव ने अभूतपूर्व सफलता अर्जित की हो, लेकिन आरएसएस और भाजपा के फासीवाद से त्रस्त लोकतंत्रवादी और धर्मनिरपेक्ष लोगों को किसी राहत की उम्मीद नहीं करनी चाहिए। क्योंकि बिहार में जड़ जमा चुकी यथास्थिति पर कोई गहरी चोट नहीं होने जा रही है।
Bihar election: देश में ‘मोदीशाही’ और दुनिया में ‘ट्रम्पशाही’ बरकरार
डॉ. प्रेम सिंह
Bihar election: हालात की बात करें, तो देश में ‘मोदीशाही’ और दुनिया में ‘ट्रम्पशाही’ (राष्ट्रपति चुनाव में डोनाल्ड ट्रम्प की हार के बावजूद) पर चोट की उम्मीद करना बेमानी है। 2015 में भी बिहार विधानसभा चुनाव में महागठबंधन ही जीता था।
उसके बाद की हकीकत 2019 के लोकसभा चुनाव समेत, सबके सामने है। महागठबंधन में शामिल पार्टियों को कल अन्य राज्यों में और 2024 के लोकसभा चुनाव में एक-दूसरे के खिलाफ चुनाव लड़ना है।
इस सबके बावजूद बिहार चुनाव का विशेष महत्व है। किस रूप में है, आइए इस बिंदु पर थोड़ा विचार करें। यह चुनाव कोरोना महामारी की काली छाया में संपन्न हुआ है। विपक्ष ने चुनाव टालने की मांग चुनाव आयोग से की थी। लेकिन भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) चुनाव के पक्ष में थी।
नीतीश कुमार को निपटाने का मंसूबा
प्रचार के डिजिटल तरीकों, सरकारी साधनों और आर्थिक संसाधनों से लैस उसके रणनीतिकार चुनाव में वाकोवर की स्थिति मान कर चल रहे थे। बिहार चुनाव के लिए बनाई गई रणनीति में लगे हाथ नीतीश कुमार को निपटाने का मंसूबा भी शामिल था।
भाजपा ने तय मान लिया था कि जनता दल यूनाइटेड (जदयू) के मुकाबले भाजपा की ज्यादा सीटें आएंगी। सीटों के बंटवारे में आधी सीटें लेना। स्वर्गीय रामविलास पासवान के बेटे को नीतीश कुमार की साख गिराने के मोर्चे पर तैनात करना।
तेजस्वी यादव और राहुल गांधी को जंगलराज के युवराज प्रचारित करना। खुद प्रधानमंत्री का अयोध्या में राममंदिर, कश्मीर में अनुच्छेद 370, नागरिकता कानून का हवाला देना। महागठबंधन के नेताओं को ‘टुकड़े-टुकड़े गैंग’ का समर्थक और भारतमाता का द्रोही बताना आदि भाजपा के तरकश के ऐसे तीर थे, जिन्हें चलाने पर विपक्ष का धराशायी होना तय माना गया था।
जब कांटे की टक्कर देने लगा महागठबंधन
चुनावी चर्चा में यह भी सुनाई दिया कि बिहार चुनाव में ओवैसी और मायावती के गठबंधन के पीछे भी भाजपा की रणनीति काम कर रही है। लेकिन देखते-देखते चुनाव टालने की मांग करने वाला महागठबंधन कड़े मुकाबले की स्थिति में आ गया। महागठबंधन के मुख्यमंत्री के उम्मीदवार तेजस्वी यादव की सभाओं में मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री की सभाओं से ज्यादा भीड़ जुटने लगी।
जिसे ‘गोदी मीडिया’ कहा जाता है, उसे भी तेजस्वी की सभाओं में उमड़ी भीड़ को दिखाने पर मज़बूर होना पड़ा। उत्साहित तेजस्वी की रिकॉर्ड चुनाव रैलियों के सामने भाजपा की पूर्व-नियोजित रणनीति पराभूत होती नज़र आने लगी।
‘सुशासन बाबू’ के नाम से मशहूर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार तो लाचार नज़र आने ही लगे। बहुसंख्यक साम्प्रदायिकता और विकास के हवाई वादों के घोल से बनी चुनाव जीतने की मोदी-शैली भी संकट में फंसती नज़र आई।
…और घबरा गए रणनीतिकार ?
रणनीतिकारों ने घबरा कर 19 लाख नौकरियां देने और कोरोना वायरस के मुफ्त टीके बांटने जैसी घोषणाएं करके माहौल अपने पक्ष में करने की कोशिश की। लेकिन, चुनाव उनकी रणनीति की गिरफ्त से बाहर जा चुका था।
केंद्र और राज्य में सत्तारूढ़ सरकारी ताकत को यह करारा झटका मुख्यत: लोकतंत्र की खूबी के कारण लगा। चुनावी पंडितों की ओर से गिनाए जाने वाले अन्य कारक सहायक भर हैं। इसी रूप में बिहार के चुनाव का विशेष महत्व है। यह महत्व महागठबंधन की हार की स्थिति में भी उतना ही सार्थक है।
कहना न होगा कि भारत के लोकतंत्र की महागाथा दुखों और विडंबनाओं से भरी है। यहां लोकतंत्र की खूबी के बूते जो भी सत्ता में आता है, उसका गला घोंटने से गुरेज नहीं किया जाता। पार्टियों और नेताओं की येन-केन-प्रकारेण सत्ता से चिपके रहने की तानाशाही प्रवृत्ति ने भारतीय लोकतंत्र को गहराई तक विकृत किया है।
सामंती और उपनिवेशवादी दौर
नेता मृत्यु के बाद भी सत्ता अपने वंशजों के हाथों में देखने की लिप्सा से परिचालित होते हैं। सामंती और उपनिवेशवादी दौर की चापलूसी की मानसिकता लोकतांत्रिक चेतना की इस विलोम प्रवृत्ति को खाद-पानी मुहैय्या कराती है।
यह सिलसिला आज़ादी के साथ ही शुरू हो गया था। पिछड़े/दलित/आदिवासी नेताओं से यह स्वाभाविक उम्मीद थी कि वे लोकतंत्र के सबसे बड़े रखवाले सिद्ध होंगे। और उसकी जर्जर काया में नए प्राण फूकेंगे। लेकिन अभी तक ऐसा परिपक्व नेतृत्व सामने नहीं आया है।
आशा की जानी चाहिए कि बिहार चुनाव में लोकतंत्र की खूबी ने जिन नेताओं को सत्तारूढ़ गठबंधन के मुकाबले में मजबूती से खड़ा कर दिया, वे लोकतंत्र के साथ पहले जैसा दुर्व्यवहार नहीं करेंगे। (लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी के शिक्षक हैं)