Bird: भागती दौड़ती जिंदगी में हमें अपनों की भी आवाज सुनने के लिए भी वक्त नहीं मिलता। लेकिन पक्षियों के कलरव की मिठास हमें मंत्रमुग्ध कर देती है। अपने जीवन में मशगूल और औरों से भिन्न पक्षियों की बोली, उनका रंग-रूप कहीं न कहीं नीरस होते जीवन में उम्मीद और प्रेरणा के नए रंग भर देता है।
Bird: बर्ड मैन ऑफ इंडिया के रूप में मशहूर डॉ. सलीम अली
प्रो. हिरदयशाह राजे आत्राम
Bird: बर्ड मैन ऑफ इंडिया के रूप में मशहूर डॉ. सलीम अली के जन्मदिन के स्वरूप भारत में पक्षी सप्ताह मनाया जाता है। लेकिन टेक्नोलॉजी में सिर खपा चुकी युवा पीढ़ी पक्षीविज्ञान (आर्निथोलॉजी) को प्रस्थापित करने वाले डॉ. सलीम अली और उनके योगदान से दूर लगती है।
Bird: दरअसल, 12 नवंबर 1896 को जन्मे डॉ. सलीम अली ने अपना जीवन पक्षी वैज्ञानिक, वन्यजीव संरक्षणवादी के तौर पर व्यवस्थित रूप से पक्षियों के सर्वेक्षण और विभिन्न प्रजातियों की जानकारी एकत्रित करने को समर्पित कर दिया।
उनकी लिखी किताबें ‘द बुक ऑफ इंडियन बर्ड्स’, ‘हैंडबुक ऑफ़ द बर्ड्स ऑफ इंडिया एंड पाकिस्तान’ और ‘द फॉल ऑफ स्पैरो’ (जीवनी) पक्षी प्रेमी और अध्ययनकर्ताओं के लिए मार्गदर्शक रही है।
रचनाओं में पक्षियों का समावेश
भारत सहित दुनिया भर के साहित्यकार और शायरों की रचनाओं में पक्षियों का समावेश दिखाई देता है। पक्षियों को आजादी के प्रतीक स्वरूप देखा जाता है। सरहद, धर्म, रीति-रिवाज और बंधनों से परे पक्षियों की उड़ान हममें हरदम नवचेतना का संचार करती है।
इंसानों की बनाई लकीरें जमीन को तो बांट सकती हैं। लेकिन आसमान पर आज भी हुकूमत पक्षियों की ही चलती है। कहते हैं कि इंसानों के भाषाई विकास का मूल स्त्रोत पक्षी ही रहे हैं। शुरुआती दौर में जहां इंसान अपनी जरूरतों के लिए इशारों तक ही सीमित था तब पक्षियों की बोली ही उसे स्वयं की भाषा के विकास करने में प्रेरक रही।
वैसे तो इस धरातल पर प्रत्येक प्राणी की स्वयं की अपनी भाषा जन्म से ही होती है। लेकिन फिर भी पक्षियों के योगदान को नकारा नहीं जा सकता। भारतीय प्राचीन कला में शुकसारिका कला का जिक्र मिलता है। जो तोता-मैना या पंछियों की भाषा बोलने और समझने की कला है।
पक्षियों की भाषा
आदि काल में लोग इस कला को सीखते थे और पारंगत भी थे। लेकिन आज यह केवल गिने-चुने जनजातीय समूहों में ही सिमट कर रह गई है। दुनियाभर में अनेक ऐसे प्रदेश हैं जहां के लोग आज भी पक्षियों की भाषा (बर्ड लैंग्वेज) को बोलने या समझने का हुनर जानते हैं।
भारत के घने जंगलों और जंगलों के समीप बसने वाली आदिम जनजातियों में पक्षियों की भाषा का प्रयोग देखा जा सकता है। इनके धार्मिक टोटेम भी पक्षियों और प्राणियों से संबंधित हैं। ये लोग इन पक्षियों को आराध्य मानते हैं और अधिवास सुरक्षित रखते हैं।
वे अपनी प्राचीन परंपराओं के साथ पक्षियों की भाषा की अनोखी धरोहर को संभाले हुए हैं। पृथ्वी पर रहने वाला हर एक जीव प्राकृतिक संतुलन में अपना विशेष योगदान देता है। अगर हम इनके परिवेश में दखल दें तो यह संतुलन गड़बड़ा सकता है।
चित्रकारी के विकास में भी अहम भूमिका
पक्षियों के खूबसूरत रंगों और पंखों की छटाओं ने चित्रकारी के विकास में भी अहम भूमिका निभाई है। वहीं चित्रों में भरे जाने वाले रंगों का विकास भी काफी हद तक यहीं से हुआ है। पक्षियों में भेदभाव और धार्मिकता के रंग नहीं होते।
यूं कह सकते हैं कि यह केवल मनुष्य में ही पाए जाते हैं। जिस प्रकार विकास की गति बढ़ती गई, उसी गति से बुद्धिजीवियों में मानवीय मूल्यों का पतन भी होता गया। और ज़मीन पर कब्जा जमाने के साथ ही आसमानों में भी हम जाल बिछाने लग गए।
चाहे राजमहल हो या सामान्य जन की कुटिया, पक्षियों का चहकना हर जगह बराबर होता है। यहां कोई भेद दिखाई नहीं देता। फर्क पड़ता है तो इस बात से कि उन्हें आप समझते कितना हैं? जिंदगी के उधेड़बुन में खोए हुए इंसानों के रिश्ते अपने लिए वक्त नहीं निकाल पाते। इन नन्हे जीवो पर ध्यान देने का समय किसके पास है?
इंसानों की बंदिशें
वैसे, इंसानों की ये बंदिशें स्वयं की ही बनाई हुई हैं। उनसे बाहर निकलना दिनों दिन मुश्किल होता जा रहा है। लेकिन छुट्टी और वीकेंड के अवसर पर हम नेशनल पार्क, जू या जंगल सफारी पर निकल कर निश्चित तौर पर इनके जीवन से परिचित हो सकते हैं।
आज तकनीकी माध्यम से हम दुनिया भर के पक्षियों की जानकारी, उनकी विशेषताएं कुछ ही सेकेंडों में उंगलियों को घुमाकर निहार सकते हैं। कुछ लोग अपने घरों में पक्षियों को पालना पसंद करते हैं। लेकिन पिंजरों में पक्षियों को कैद कर रखना किस हद तक सही है?
पिंजरो में रखे पक्षियों को देखना हमें आनंदित करता है। पर क्या वह पिंजरे में बंद पक्षी भी उस खुशी को महसूस करता होगा? उसकी असली खुशी तो इस खुले आसमान की अनगिनत उड़ानों में है। कुदरत ने हर किसी को आजाद और बेखौफ बनाया है। हम इंसान अछूते हैं और भौतिक लालसा के बंधनों में सिस्टम की दीवारों से जकड़े हैं। (लेखक जनता महाविद्यालय, चंद्रपुर के वरिष्ठ वाणिज्य विभाग मे कार्यरत हैं)