पूंजीवाद का बीमार दिमाग आज भी भारत की स्वतंत्र हस्ती नहीं स्वीकार कर पाता। इस बीमारी का बीज उपनिवेशवादी दौर में पड़ गया था। इसी के चलते उसके लिए अंग्रेज हमेशा सही और भारतीय लड़ाके, चाहे वे रजवाड़े हों, किसान हों, आदिवासी हों, हमेशा गलत थे। किसी भारतीय शासक ने भारत की जनता पर अंग्रेजों जैसा कहर नहीं बरपाया।
1857 भारत के लोगों ने पहला स्वतंत्रता संग्राम लड़ा। उसके दमन में अंग्रेजों ने जो नृशंसता की, दुनिया के इतिहास में उसका उदाहरण नहीं मिलता। किसी भारतीय शासक के राज्य में वैसे भयंकर अकाल नहीं पड़े, जैसे अंग्रेजों के काल में पड़े। जब भारत में अकाल के चलते एक साथ कई लाख लोग एडि़यां रगड़ कर मरते थे, तो भारत या इंग्लैंड में अंग्रेज का एक निवाला भी कम नहीं होता था। जो अंग्रेज, सिपाही हो या नौकरशाह, भारत आ गया, मालामाल होकर गया। भारत में उसका वैभव और रौब-दाब यहां के किसी भी शासक से ज्यादा था।
उनकी अय्याशी के किस्से कम नहीं हैं। लेकिन अंग्रेजी-राज यहां के शासकों से अच्छा था, पूंजीवाद के बीमार दिमाग में यह मान्यता घुट्टी की तरह गई हुई है। उपनिवेशवादी शोषण ने भारत को आर्थिक रूप से जर्जर कर दिया था। सबसे ज्यादा शोषण किसानों, आदिवासियों, कारीगरों और मजदूरों का हुआ था। गांधी ने उस यथार्थ के मद्देनजर देश की स्वावलंबी श्रम आधारित विकेंद्रित अर्थव्यवस्था बनाने की बात की।
अगर अपनी अर्थव्यवस्था नहीं है, तो आप स्वतंत्र भी नहीं हो सकते। उपनिवेशवादी शोषण की प्रक्रिया में पैदा हुए एक छोटे मध्यवर्ग ने गांधी का यह विचार स्वीकार नहीं किया। केवल राजनीतिक आजादी के आकांक्षी मध्यवर्ग ने गांधी की इस धारणा को न केवल अस्वीकार किया, पिछड़ा भी बताया।
विकास के बने-बनाए पूंजीवादी मॉडल के भरोसे आर्थिक आजादी को वह हथेली पर धरी चीज मानता था। उसके मुताबिक पूरे भारत को मध्यवर्ग में तब्दील होना था। यानी किसानों, आदिवासियों, कारीगरों, मजदूरों, छोटे-मोटे दुकानदारों को उस विकसित भारत में नहीं रहना था। इसके साथ जो अन्य धारणाएं परोसी गईं, उन्हें फैंटेसी ही कहा जा सकता है। मसलन, इस विकास के साथ वर्ण, जाति, धर्म, क्षेत्र, भाषा आदि की बाधाएं टूट कर दूर हो जाएंगी। फैंटेसी का इंतिहाई सिरा यह था कि पूरा भारत अंग्रेजी पढ़ेगा, समझेगा और बोलेगा।
मिश्रित अर्थव्यवस्था और नेहरूवादी-समाजवादी लक्ष्य की बाधाओं को पूंजीवादी दिमाग ने पार कर लिया है। उसका नया मरकज अमेरिका है। ‘मैं गुलाम मोहि बेच गुसांई’ की तर्ज पर वह उसके पैरों में बिछा हुआ है। उसके लिए अमेरिका सही ही सही और अमेरिकी गुलामी का विरोध करने वाले गलत ही गलत हैं।
पूंजीवाद के बीमार दिमाग से अगर कहें कि अंग्रेजों की अगुआई में कुछ अन्य यूरोपीयों ने अमेरिका के मूल निवासी रेड इंडियनों का सफाया करके, उनका प्रकृति प्रदत्त भूभाग व संसाधन लूट कर, अश्वेतों को जानवरों की तरह खटा कर यह सोने की लंका बसाई है, तो वे कहेंगे, तो क्या हुआ; जैसा कि वे आदिवासियों, किसानों और खुदरा व्यापारियों की तबाही पर कहते हैं।
अगर उनसे कहें कि अमेरिका अन्य देशों की संप्रभुता और नागरिक स्वतंत्रता का किंचित भी सम्मान नहीं करता, बल्कि उनके खिलाफ षड़यंत्र करता है, तख्ता पलट करता है, तो भी वे कहेंगे, तो क्या हुआ? अमेरिका का अंधभक्त यह वही दिमाग है, जो उपनिवेशवादी दौर में अंग्रेजों की सराहना में लगा था।