Capital’s amphitheater:संसद में जबरन पारित और राष्ट्रपति द्वारा हस्ताक्षरित दो किसान कानूनों के खिलाफ किसान आंदोलन कर रहे हैं। कांग्रेस समेत कई विपक्षी पार्टियां किसानों के समर्थन और सरकार के विरोध में हैं। मीडिया में भी कुछ बहस चली है। कानूनों के पक्ष-विपक्ष में किसान-समस्या के गंभीर अध्येताओं ने अपने मत रखे हैं। सरकार पूरी तरह कानूनों के पक्ष में अड़ी है। किसान-समस्या कम से कम भारत की मूलभूत समस्या है।
इसे गंभीरतापूर्वक समझे और सुलझाए बिना एक आधुनिक राष्ट्र और समाज के रूप में हम न खड़े हो सकते हैं, न आगे बढ़ सकते हैं। सबसे ज्यादा इस बारे में किसानों और उनके नुमाइंदों को सोचना है। कांग्रेस अगर इन कानूनों के चलते किसानों की पक्षकार बन रही है तो उसे अपने निकट अतीत की नीतियों पर पुनर्विचार कर लेना चाहिए। तभी उसके विरोध की साख और सार्थकता बनेगी। नवउदारवादी दौर की मुक्त बाज़ार(वादी) अर्थव्यवस्था (फ्री मार्किट इकॉनमी) में किसान, खेती और ज़मीन की समस्या पर यह लेख 2009 का है। अब फिर प्रासंगिक है।
Capital’s amphitheater: देश के नगर-महानगर भी जमीन की जंग से बाहर नहीं
Capital’s amphitheater: देश के नगर-महानगर भी जमीन की जंग से बाहर नहीं हैं। विदेशी हो या निजी, मुनाफाखोर पूंजी का अड्डा पूरी शानो-शौकत के साथ शहरों में जमता है। प्रेमचंद के उपन्यास का शीर्षक उधार लें तो कह सकते हैं नगर-महानगर पूंजी की ‘रंगभूमि’ हैं।
यहां जमीन हथियाने के लिए गांव तो गंदी बस्ती में तब्दील किए ही जाते रहे हैं, गंदी बस्तियों की जमीन हथियाने के लिए दंगों तक का सहारा लिया जाता है। झुग्गी-झोंपड़ियों में आग लगा दी जाती है। शहरों में जमीन का चक्कर गरीबों को ही नहीं, अमीरों को भी नचा रहा है।
विभिन्न महकमों की या स्वतंत्र समूह आवास सोसायटियों की मार्फत सरकार से सस्ती जमीनें लेकर बनीं या खुद सरकारों द्वारा बनाई गई कॉलोनियों के कम अमीर वाशिदों को नए ज्यादा अमीर खरीदार और बिल्डर भारी-भरकम रकम देकर ‘विस्थापित’ कर रहे हैं। यह सिलसिला शहर के विकास के छोर तक चलता चला जाता है।
अब जमीन हथियाने के लिए सरकारी स्कूल बंद किए जा रहे हैं या सार्वजनिक-निजी भागीदारी के नाम पर उन्हें निजी पूंजी के हवाले किया जा रहा है। निजी स्कूलों के लिए जमीन का टोटा न कभी पहले था, न अब है। नए खुलने वाले निजी और विदेशी विश्वविद्यालयों के लिए जमीन शहरों में ही चाहिए। उन्हें मिल भी रही है।
हरियाणा के 6 गांवों की उपजाऊ जमीन जबरन अधिगृहीत
कमी पड़ती है तो आस-पास के गांवों तक शहर पहुंचा दिया जाता है। उदाहरण के लिए, दिल्ली की उत्तरी सीमा पर हरियाणा के 6 गांवों की उपजाऊ जमीन जबरन अधिगृहीत करके राजीव गांधी एजुकेशन सिटी बनाया जा रहा है।
Capital’s amphitheater: जमीन हरियाणा सरकार ने ‘जनहित’ के नाम पर ली है, लेकिन एजुकेशन सिटी की योजना से लेकर निर्माण तक सारा काम विदेशी संस्थाएं/कंपनियां कर रही हैं। अपनी जमीन के अधिग्रहण का विरोध करने वाले या ज्यादा मुआवजा चाहने वाले किसानों को अदालत से भी राहत नहीं मिली।
गांव के किसान व्यापार नहीं कर पाते। उनका मीजान एक-दो छोटी-मोटी नौकरी और जम कर खेती करने में ही बैठता है। हर जगह छिड़ी जमीन की जंग के चलते अब यह भी आसान नहीं रहा कि किसी दूसरे इलाके में जाकर जमीन खरीद ली जाए और खेती की जाए। मुआवजे का पैसा बरबाद होने में देर नहीं लगती।
कोठियां बन जाएंगी, कारें आ जाएंगी, दुकानें खुल जाएंगी। गांव कुछ सालों में गंदी बस्तियों में तब्दील हो जाएंगे। पिछले अंक में हमने आपको बताया था पचास-सौ साल बाद ‘साहब लोग’ कहेंगे इन गंदी बस्तियों को हटा कर कहीं दूर बसाओ। मोतीलाल नेहरू स्पोर्ट्स स्कूल भी कभी न कभी वहां से हटा दिया जाएगा।
राजीव गांधी एजुकेशन सिटी
Capital’s amphitheater: राजीव गांधी एजुकेशन सिटी में एनआरआई और दिल्ली समेत अन्य नगरों के नवधनाढ्य वर्ग के बच्चे शिक्षा पाएंगे। यह जरूरी है क्योंकि वैसी शिक्षा विदेशों में बहुत मंहगी पड़ती है। अब तो उसमें जान-जोखिम भी हो गया है। इन 6 गावों अथवा हरियाणा के अन्य गांवों के कुछ बच्चे वहां दाखिला पा सकते हैं, लेकिन वे फिर गांव के नहीं रह कर कंपनियों के बच्चे बन जाएंगे। पूरे देश में देहात के साथ यही कहानी चल रही है।
शहरों में स्थित सरकारी कॉलिजों और विश्वविद्यालयों की जमीन पर अभी सरकारी स्कूलों जैसा हमला नहीं है। उन्हें बंद करके सीधे या पार्टनरशिप में निजी/विदेशी पूंजी का अड्डा बनाना अभी कठिन होता है। लेकिन वहां भी रास्ता निकाल लिया गया है।
उच्च शिक्षा की सरकारी संस्थाओं में तेजी से नवउदारवादी अजेंडे की घुसपैठ बनाई जा रही है। यानी उन्हीं विषयों को शिक्षा बताया और बढ़ाया जा रहा है जो बाजार में बिकते हैं। यहां एक उदाहरण आपको देना चाहेंगे। कुछ साल पहले देश के मूर्द्धन्य दिल्ली विश्वविद्यालय की इमारतों का सौंदर्यीकरण करने के लिए इंग्लैंड से बड़ी मात्रा में विदेशी धन आया था।
विद्यार्थी युवजन सभा
Capital’s amphitheater: उस धन से बने कला संकाय और केंद्रीय संदर्भ पुस्तकालय के प्रवेशद्वार पर ‘यूनीवर्सिटी प्लाजा’ लिखा गया है। उसी समय विद्यार्थी युवजन सभा (वियुसद्) के एक सदस्य राजेश रौशन ने प्लाजा के सभी शब्दकोशीय अर्थ देकर कुलपति को पत्र लिखा था कि शिक्षा-स्थल के लिए प्लाजा शब्द का उपयोग गलत है, लिहाजा उसे हटाया जाए। वह पत्र ‘दि हिंदू’ अखबार में भी प्रकाशित हुआ था। लेकिन आज तक उस पर कोई कार्रवाई नहीं हुई है।
आमतौर पर जब किसानों की जमीन हथियाने का विरोध किया जाता है तो उस विशेष कानून में खामियां निकाली जाती हैं, जिसके तहत सरकारें जमीन हथियाती हैं। ज्यादातर तो उचित मुआवजा देने और सही से पुनर्वास करने की मांग की जाती है।
नक्सलवादी-माओवादी आंदोलन
Capital’s amphitheater: आदिवासी अलबत्ता जमीन न देने के लिए अड़ते हैं। उनके संघर्ष में जनांदोलनकारी संगठन जुटते हैं। नक्सलवादी-माओवादी आंदोलन भी जनांदोलन है जो संघर्ष का हिंसक रास्ता अपनाता है। किसानों का संघर्ष ज्यादातर ज्यादा मुआवजा पाने के लिए होता है। किसानों के साथ नेता होते हैं। ऐसे नेता जो फिलहाल सत्ता में नहीं होते। सत्ता बदलने पर किसानों के हिमायती नेता भी अक्सर बदल जाते हैं।
मांगें न आदिवासियों की पूरी होती हैं, न किसानों की। क्योंकि मूलभूत सच्चाई यह है कि किसानों-आदिवासियों के लिए इस व्यवस्था में जगह नहीं है। यानी किसान-आदिवासी रहते कोई जगह नहीं है। हम उनके विकास के जटिल प्रश्न को भूल नहीं रहे हैं। लेकिन विकास के प्रचलित मॉडल में उनकी आहुति ही होनी है।
जब सिंगूर और नंदीग्राम के किसानों का संघर्ष चल रहा था, पूंजीवादी विकास की शराब पीकर मतवाले हुए बुद्धदेव भट्टाचार्य ने अपनी जान में लाख टके का सवाल दागा – ‘क्या किसान का बेटा किसान ही रहेगा?’ पलट कर उनसे पूछा जा सकता है – क्या आप किसान के बेटों को टाटा-अंबानी बनाने जा रहे हैं? ऐसा नहीं है भविष्य में खेती नहीं होगी।
कारपोरेट खेती होगी, जिसे मुनाफे के लिए कारपोरेट जगत कराएगा। सेज आने के पहले कारपोरेट खेती का फरमान जारी हो चुका था। कहने का आशय है कि किसानों-आदिवासियों की जमीन और जिंदगी से बेदखली कोई फुटकर घटना नहीं है। यह आधुनिक औद्योगिक सभ्यता का अविभाज्य ‘कर्तव्य’ है।
उपभोक्तावादी सभ्यता कायम करना पूंजीवादी साम्राज्यवाद का ध्येय
Capital’s amphitheater: बड़ी पूंजी और उच्च तकनीकी पर आधरित उपभोक्तावादी सभ्यता कायम करना पूंजीवादी साम्राज्यवाद का ध्येय रहा है। उसे जल, जंगल, जमीन, पहाड़, जैविक संपदा – सब चाहिए। उसकी राक्षसी भूख अनंत है।
लिहाजा, प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन और लूटपाट होना लाजिमी है। इस रास्ते पर उसने औपनिवेशिक दौर में तीन-चौथाई दुनिया के संसाधनों को लूटा, आबादियों का सफाया किया और कई विशाल भूभागों पर कब्जा कर लिया। यह सब करने के लिए उसके पास मानव प्रगति के इतिहास में क्रांतिकारी होने का प्रमाणपत्र था, जो केवल पूंजीवादी विचारकों ने नहीं, समाजवादी चिंतक कार्ल मार्क्स ने भी दिया था।
उसी प्रमाणपत्र के बल पर पूंजीवादी साम्राज्यवाद आज तक उन आबादियों का सफाया करने में लगा है, जो उसके विकास में आड़े आती हैं। खेती-किसानी, कारीगरी, खुदरा दुकानदारी आदि में लगी आबादियां ऐसी ही हैं। पूंजीवादी साम्राज्यवाद को पूरी दुनिया में कायम होना है, तो दुनिया में बची इन आबादियों का सफाया होना लाजिमी है। यह उनकी नियति है। मार्क्स ने भी ‘भोंदू’ और ‘प्रतिक्रियावादी’ किसानों की इस नियति को देख लिया था।
उपनिवेशवादी दौर के बाद स्वतंत्र हुए देशों में विकास का मॉडल पूंजीवादी ही रहा, इसलिए स्वतंत्रता के बावजूद उनमें आंतरिक उपनिवेशीकरण की प्रक्रिया चलती रही। विकास का मॉडल वही होने के चलते समाजवादी व्यवस्था वाले देशों में भी स्थिति ज्यादा भिन्न नहीं रही। लेकिन स्वतंत्रता संघर्ष की कुर्बानियों और मूल्यों के चलते आंतरिक उपनिवेशीकरण की प्रक्रिया धीमी गति से चलती थी।
जैसे ही भूमंडलीकरण के रास्ते नवसाम्राज्यवाद की वापसी और साम्राज्यवाद की संतानों की प्रतिष्ठा हुई, इन अभागी आबादियों के विस्थापन और विनाश की प्रक्रिया में एक बार फिर तेजी आ गई है।
1997 से अब तक करीब दो लाख किसान कर चुके हैं आत्महत्या
Capital’s amphitheater: 1997 से अब तक अब करीब दो लाख किसान आत्महत्या कर चुके हैं। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) का आंकड़ा है कि 2008 तक 199,132 किसानों ने आत्महत्या की है। गैर-सरकारी हवाले यह संख्या कहीं ज्यादा मानते हैं। वह हो भी सकती है। कल्पना कीजिए अगर देश में 100 पूंजीपति आत्महत्या कर लेते तो क्या कोहराम मचता?
लेकिन इतने बड़े पैमाने पर किसानों की आत्महत्या और आदिवासियों के विस्थापन के साथ व्यवस्था का काम बखूबी चलता रहता है। किसानों पर क्या कर्ज होता होगा जो पूंजीपतियों पर होता है! लेकिन वे कभी आत्महत्या नहीं करते। यह उनकी अपनी व्यवस्था है। सरकार उन्हें कर्ज माफी के साथ और कर्ज देती है।
वे भव्य चैंबरों में सीधे प्रधनमंत्री और वित्तमंत्री से मिलते हैं। कृषिमंत्री और कृषि वैज्ञानिक उनकी मदद और हाजिरी में होते हैं। किसान-आदिवासी कहीं प्रतिरोध करते हैं तो पुलिस बल भेज कर उन पर गोली चलवाई जाती है।
कलिंगनगर-काशीपुर से लेकर सिंगुर-नंदीग्राम, दांतेवाड़ा, दिल्ली की जड़ में नोएडा तक किसानों-आदिवासियों की जान और जमीन दोनों ली जा रही हैं। देश की सभी राजनैतिक पार्टियों, उनके बुद्धिजीवियों, यहां तक कि देश की सर्वोच्च अदालत को यह मंजूर है। इस व्यवस्था में किसानों को आत्महत्या करने की अनुमति है, विरोध करने की नहीं!
जान के मायने
पिछले करीब पंद्रह सालों से देश-भर में नारा गूंजता है – ‘जान दे देंगे जमीन नहीं देंगे’। हम लोग मध्य प्रदेश में संघर्ष के दौरान एक जोरदार गीत गाते हैं। गीत का मुखड़ा है – ‘जान जावे तो जाए, पर हक्क न मेरा जाए’। जाहिर है, जान देने का नारा इसलिए दिया जाता है कि अपनी सरकार है, जान की कीमत पर जमीन भला क्यों लेगी?
अंग्रेजी हुकूमत तो है नहीं, कि नरम नहीं पड़ जाएगी? लेकिन सरकारें अपनी रह नहीं गई हैं। वे हक के साथ जान भी लेने में नहीं हिचकतीं। आप झट से कह सकते हैं कि तब तो नक्सलवादी ठीक ही हिंसा का रास्ता अख्तियार किए हुए हैं। क्रांति न हो, दो-चार को मार कर मरते हैं। ‘महाशक्ति’ भारत के ‘ईमानदार’ प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, ‘त्याग की देवी’ सोनिया गांधी और उनके सिपहसालार ठीक यही चाहते हैं।
नक्सलवाद भारत की सबसे विकट समस्या नहीं है, यह बच्चा भी बता देगा। लेकिन प्रधानमंत्री उसे बार-बार देश की सबसे विकट समस्या बताते हैं। यह दरअसल हकीकत नहीं, उनकी मंशा है। हिंसक व्यवस्था के एजेंट को हिंसक प्रतिरोध चाहिए। ताकि सेना भेज कर ‘विकास विरोधियों’ की हत्या के अभियान को तेज किया सके।
जल-जंगल-जमीन के हक की लड़ाई
Capital’s amphitheater: हर पार्टी के ‘विकास पुरुष’ उनके साथ हैं। शायद ही किसी ने नक्सलवादियों पर सेना से हमले करने के उनके मंसूबे का गंभीर विरोध किया हो। दरअसल, जल-जंगल-जमीन के हक की लड़ाई लड़ने वाले सभी संगठनों और लोगों को मनमोहन सिंह मंडली जल्दी से जल्दी निपटा देना चाहती है। ध्यान कर लें, उनके इस मंसूबे में देश का लोकतंत्र भी निपट सकता है!
जरूरी नहीं कि सभी किसान, आदिवासी, छोटे दुकानदार आत्महत्या कर लें या प्रतिरोध करते हुए मारे जाएं। भारत की विशाल आबादी के मद्देनजर यह असंभव है। आधुनिक सभ्यता में खेती एक अधम पेशा है, वह भी घाटे का।
इसलिए यह आश्चर्य की बात नहीं है कि किसान घाटे की खेती से निजात पाने या आधुनिक उपभोक्तावाद की चकाचौंध में खुद जमीनें बेचने का फैसला कर रहे हैं। आदिवासी, दलित और अति पिछड़ी जातियां इस व्यवस्था को अपनी विकास परियोजनाओं में हाड़-तोड़ मेहनत करने के लिए जिंदा चाहिए।
परियोजना दर परियोजना से मुसलसल विस्थापन
उनका अपने घरों और फिर परियोजना दर परियोजना से मुसलसल विस्थापन होते रहना है। इस तरह भारत की यह विशाल आबादी काफी बड़ी तादाद में लंबे समय तक जिंदा रहेगी। लेकिन उनके होने का कोई मोल या मीजान इस व्यवस्था में नहीं होगा।
मनुष्य की जान केवल शरीर नहीं होती। उसमें बहुत कुछ होता है। कुछ अच्छा होता है, कुछ बुरा होता है। अच्छाई क्या है यह जानने; उसे पाने; कायम करने; और उतरोत्तर उन्नत करने का उद्यम मनुष्य करता है। उसी क्रम में बुराई की पहचान और परहेज का विवेक भी बनता चलता है। अच्छाई और बुराई के बीच संघर्ष चलता है।
अच्छाई और बुराई के बीच संघर्ष
अच्छाई में कुछ बुराई समा जाती है, बुराई में कुछ अच्छाई। अलबत्ता, ऐसा माना जाता है कि संघर्ष के पीछे अच्छाई की प्रेरणा होती है, या होनी चाहिए; अच्छाई की जीत की इच्छा और इच्छा-शक्ति भी; ताकि हम निरे बुरे न बन जाएं।
मनुष्य का यह सांस्कृतिक संघर्ष है जो चिरकाल से चला आया है। बुराई से निरंतर लड़ने के लिए मनुष्य/समाज का सख्तजान होना जरूरी होता है। अगर वह जमीन से, श्रम से जुड़ा है, तो सख्तजान होगा। जमीन से काट दिए जाने पर उसकी जान जाती रहेगी। किसानों-आदिवासियों की वही हालत है। जिंदा रहने पर भी वे बेजान हैं।
किसानों-आदिवासियों को सामंती संस्कृति का बुरा अवशेष माना जाता है। जबकि वे सामूहिकता और श्रम की संस्कृति की संतान हैं। यह स्पष्ट हो चुका है कि शोषणमूलक ठल्लू सामंती संस्कृति पूंजीवाद के साथ मिल कर बची रहती है। लेकिन सहयोग, श्रम और प्रकृति से साहचर्य पर आधारित किसान-आदिवासी संस्कृति को विनष्ट और विकृत किया जाता है।
ग्राम-विकास की बात आजादी के समय से ही
ग्राम-विकास की बात हो तो आजादी के समय से ही रही है, लेकिन उसका अर्थ होता है गांव को शहर बनाना – गांव होने के ‘पाप’ को मिटाना। हम यह नहीं कहते कि गांव आदर्श या निष्पाप उपस्थिति थे। लेकिन वे थे और बड़ी तादाद में थे, तो ग्राम-विकास की गांव-केंद्रित योजनाएं बननी चाहिए थीं। यह लोकतंत्र का भी तकाजा था, समाजवाद का भी और धर्मनिरपेक्षता का भी। लेकिन एक अंधविश्वास की तरह मान लिया गया कि गांव गंदे होते हैं और वे सभी शहर बन जाएंगे। गांधी की बात बिल्कुल नहीं सुनी गई।
अंबेडकर नेहरू की तरह गांवों को बुरा मानते थे। लेकिन उनका वैसा मानने का विशेष संदर्भ था। उन्होंने दलितों को सलाह दी थी कि वे जातिवाद के दंश और प्रताड़ना से बचने के लिए गांवों से शहर आकर बसें। दलितों के लिए यह बिल्कुल सही सलाह थी।
दलित लेखकों की आत्मकथाएं
लेकिन दलित लेखकों की आत्मकथाएं पढ़ कर पता चलता है कि शहरों में भी वे अछूत ही बने रहे। गांवों में रहने वाले दलित गांधी-अंबेडकर के समय से और ज्यादा अछूत बन गए हैं। शहर आकर बसने वाले दलित तक अब उनके पास नहीं जाना चाहते।
गांव से उभरने वाली आवाज को दबा दिया गया। वह दमित होकर विकृत हुई और विध्वंसक भी। जिस देश में सरकारें सत्ता का खुला और भरपूर दुरुपयोग करती हों, माफिया अपनी सरकार चलाते हों, वहां खाप पंचायतें हत्या के फरमान जारी न करें, यह कैसे संभव है?
खाप पंचायतों का युवक-युवतियों की हत्या का फैसला देना मध्ययुगीन बर्बरता का अवशेष नहीं, आधुनिकता का ही एक विकृत रूप है। करीब आठ लाख गांवों और छोटे कस्बों के देश को नगरीय सभ्यता में बदलने के अव्यावहारिक उद्यम का यही नतीजा होना था। और अव्यावहारिक बता दिया गया गांव-स्वराज की बात करने वाले गांधी को! दरअसल, सामंती संस्कृति वाया पूंजीवाद समाजवाद में प्रवेश कर जाती है।
किसान-कारीगर-आदिवासी संस्कृति
फिर तीनों की ताकत किसान-कारीगर-आदिवासी संस्कृति पर हमला बोलती है। अपनी मेहनत से थोड़े में गुजारे का आदर्श न सामंतवाद में था, न पूंजीवाद में है। वैज्ञानिक समाजवाद में भी समानता का भौतिक लक्ष्य सबको सेठ-साहूकारों जैसा अमीर बनाना है। उसी से समाजवादी नेताओं, नौकरशाहों और बुद्धिजीवियों को अपने शानो-शौकत भरे जीवन की वैधता हासिल होती है।
चर्चा को समेटें। बड़ी से बड़ी पूंजी और उन्नत से उन्नत तकनीकी भारत की एक अरब बीस करोड़ आबादी को ‘विकसित’ नहीं बना सकती। जिस नौ-दस प्रतिशत विकास-दर का राग प्रधनमंत्री गाते नहीं थकते, उससे एक यूरोपीय देश के बराबर की आबादी का ही दोयम दर्जे का विकास हो सकता है। वही हो रहा है।
बाकी सब अंधविश्वास है और अंधकार है। किसान-आदिवासी बच सकें और एक बेहतर जीवन-स्तर और जीवन-शैली के हकदार हों, तो पूंजीवादी साम्राज्यवाद को खारिज कर उसका विकल्प तैयार करना होगा। ऐसा करना आसान हो सकता है, अगर आधुनिक बुद्धि यह स्वीकार करे कि पूंजीवाद मानव प्रगति का क्रांतिकारी चरण नहीं था।
प्रतिक्रियावादी-फासीवादी-साम्राज्यवादी बन जाए
Capital’s amphitheater: यह धारणा तर्कसम्मत नहीं हो सकती कि कोई चरण शुरू में क्रांतिकारी हो और बाद में प्रतिक्रियावादी-फासीवादी-साम्राज्यवादी बन जाए। जबकि उसने शुरू में ही अलग-अलग भूभागों में अनेक आबादियों का लगभग समूल नाश कर दिया और उनके समस्त संसाधनों पर कब्ज़ा जमा लिया।
लेनिन समेत सभी कम्युनिस्ट विचारक साम्राज्यवाद को पूंजीवाद की उच्चतम अवस्था मानते हैं। लोहिया का कहना है कि पूंजीवाद का अस्तित्व बिना साम्राज्यवाद के संभव ही नहीं होता। उन्होंने अपने मशहूर लेख ‘मार्क्सोत्तर अर्थशास्त्र’ में मार्क्स के पूंजीवाद के अध्ययन की एकांगिता का उल्लेख करते हुए बताया है कि उन्नीसवीं सदी के जिस पूंजीवाद को मार्क्स अपने अध्ययन का आधार बनाते हैं, उसमें यूरोप द्वारा बाकी दुनिया की लूट की अनदेखी की गई है।
पूंजीवाद के क्रांतिकारी होने और साथ ही श्रम, आपसी सहकार और प्रकृति के साहचर्य से बनी किसान-आदिवासी जन-संस्कृति को सामंती मानने की भ्रांति का निवारण जब तक नहीं होता, तब तक किसानों-आदिवासियों की जमीन और जान दोनों ली जाती रहेंगी।