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Corona and Government: सेवा इतनी कि जीडीपी का 90% ऋण का बोझ
कहते हैं लोग
Corona and Government: जब एक्सपर्ट्स का मानना है कि नवंबर से जनवरी के बीच तीन महीने हमें कोरोना की दूसरी लहर से लड़ने के लिए स्वास्थ्य सेवाओं को बेहतर बनाने पर काम करना था, तो हम बिहार और बंगाल जीत को लेकर देश को स्पिन दे रहे थे?
इस बीच में 150 दिनों से किसान भी दिल्ली की सीमाओं सहित देश के कोने-कोने से सिर्फ एक बात कह रहे थे, हमें माफ़ कर दो। हम जिस हाल पर थे, उसी पर रहने दो। हमारा इतना भी विकास मत करो कि हम अपने ही खेतों में बंधुआ मजदूर न बन जाएं।
सैकड़ों कुचक्री मेहनत
Corona and Government: तब उन्हें परास्त करने के लिए सैकड़ों कुचक्री मेहनत की जा रही थी। आज भारत में डबल म्युटेंट कोरोना करीब-करीब हर शहर और कस्बे में पांव पसार चुका है। चुनावों और हरिद्वार कुंभ के जरिये उसे अब अगले चरण में गाँव-गाँव तक पहुंचाने का अथक प्रयास किया जा चुका है।
यूपी का खास ख्याल रखते हुए पंचायत चुनावों के लिए दिन और खासकर रात में बैठकें हो रही हैं और दारू उड़ाई जा रही है। दिल्ली, छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र की राज्य सरकारों ने अपने यहां टेस्टिंग और इलाज की कोशिश की, तो उसे ही कोरोना के मुख्य उत्पादक बताकर कलंकित किया जा रहा है।
यहां आंकड़ों को छिपाने की साजिश
जबकि गुजरात, मध्यप्रदेश, यूपी और बिहार में कोरोना मरीजों और मृतकों के आंकड़ों को छुपाकर, वहां पर स्थिति को सामान्य दिखाने की कोशिश की जा रही है। इससे इन राज्यों के लोगों पर विपत्ति कितनी भारी पड़ने वाली है, इसका अंदाजा इलाहाबाद हाईकोर्ट के लॉकडाउन से समझा जा सकता है।
लेकिन कुछ ज्यादा ही फेस्बुकियाई लोग उसमें भी हाईकोर्ट को ही यूपी सरकार की तरफदारी समझकर अति बुद्धिमत्ता का परिचय दे रहे हैं। ये भी विरोध के नाम पर एक बीमारी है। जब आप स्थिति को पूरी सम्पूर्णता में नहीं देख पाते तो यही स्थिति होती है।
इस पूरी स्थिति को मैं तीन तबकों में विभाजित करके देख पा रहा हूं। यदि आप भी इसमें कुछ जोड़ सकें तो बेहतर होगा।
पहले वे लोग जो सत्ता पर काबिज हैं
उनके लिए भारत की सत्ता पर काबिज चुनिंदा लोगों के लिए अब कोरोना की दूसरी लहर का कोई अर्थ नहीं बचा। वे खुद को इम्म्युनिटी प्राप्त मान रहे हैं। उसकी वजह भी है। कोरोना से वे अब मर नहीं सकते। इसके लिए उपचार, अस्पताल और चिकित्सा की व्यवस्था उनके लिए हो चुकी है।
इसीलिए वे शान के साथ बिना मास्क के भी घूमने, रैली निकालने से नहीं चूक रहे हैं। इनमें से कुछ संक्रमित भी हुए और अपने लिए रिजर्व अस्पताल में आराम फरमा रहे हैं।
जबकि पहली कोरोना लहर में उन्हें अपनी जान का भय था। इसीलिए 600 की कुल संख्या के बावजूद राष्ट्रीय स्तर पर लॉकडाउन पिछले साल लगा दिया गया था।
दूसरे मध्य वर्ग के लोग
पिछली बार यह तबका शायद ही इस वायरस की चपेट में आया था। उसी ने खूब ताली-थाली और लोटा बजाया था। आज यही तबका कोरोना की चपेट में है। बाकी भी होंगे, लेकिन उनके पास कोरोना से भी बड़ा वायरस उनकी जिन्दगी में चिपटा हुआ है, और वह है भूख।
इस तबके में इस बार यह व्यापक स्तर पर फैला है। लोग स्वास्थ्य सेवाओं की पोल देख रहे हैं, वह भी अपने परिजनों की जान की कीमत पर। इनमें भक्तों की संख्या भी अच्छी खासी है।
सबसे बड़ी बात लोगों को ऑक्सीजन तक नहीं मिल पा रही है। कल तक आम दिनों की तरह सारा ऑक्सीजन औद्योगिक जरूरतों को पूरा करने पर लग रही थी। मेडिकल ऑक्सीजन तो मात्र कुछ प्रतिशत ही ये इकाईयां तैयार करती थीं, क्योंकि उसमें काफी झंझट है।
पैसा होते हुए भी वह लाचार
इस तबके के अंदर काफी भूसा भरा हुआ था, लेकिन आज हाथ में कुछ पैसा होते हुए भी वह लाचार है। सिलिंडर के लिए अनाप शनाप पैसे देकर भी उसे अस्पताल में बेड नहीं मिल रहा है।
उसे अस्पतालों ने एक ऐसी दवाई लाकर देने के लिए कह दिया है, जिसका पिछले साल ही यूरोप और अमेरिका ने कोरोना के लिए कुछ खास असर नहीं पाया था। और WHO ने इस बारे में आवश्यक सूचना भी जारी कर दी थी।
जीवन रक्षक के तौर पर अनुपयुक्त दवा
लेकिन भारत में चूँकि उसके उत्पादन के लिए मंजूरी ले ली गई थी, इसलिए उसका उत्पादन और फिर उसके और सरकार द्वारा मेडिकल प्रोफेशन में इसे प्रेस्क्राइब कर देने से हर डॉक्टर उसे लिख मार रहा है। यह दवा इतनी महंगी थी कि इसे यूरोप और अमेरिका तक ने काफी खर्चीली और जीवन रक्षक के तौर पर अनुपयुक्त करार दे दिया था।
लेकिन यह धडल्ले से बाजार में 45-60 हजार में बिक रही है। लोग देश भर में इसे ढूढ़ रहे हैं। लेकिन सरकार की ओर से कोई एडवाइजरी नहीं जारी हो रही है। जितना यह दवा नहीं मिल रही, उतना ही पैनिक बढ़ता जा रहा है। और लोग बदहवासी में अधिक मर रहे हैं।
तीसरा है अभागा तबका प्रवासी मजदूर
उसे इसका बोझ हर हाल में चुकाना ही पड़ता है। पिछली बार भी यह बोझ इसके माथे पर गिरा था। यह देश की वह मेहनतकश आबादी है, जो प्रवासी मजदूर कहलाती है। इसमें नए प्रवासी मजदूरों के साथ-साथ करोड़ों में कुछ वर्षों से देश के कोने-कोने में कार्यरत लोग हैं, जो घरों में सहयोगी भूमिका के साथ साथ, निर्माण मजदूर, असंगठित मजदूर हैं।
इनके पास स्वास्थ्य, शिक्षा, न्यूनतम मजदूरी, आवास सहित वे सारी समस्याएं हैं, जो किसी भी विकसित देश के निवासियों की कल्पना से बाहर हैं। इस बार अब जब देश के बड़े शहरों में लॉकडाउन की घोषणा की जा रही है, यह एक बार फिर से अपने दडबों से निकलकर अपने अपने गाँवों की ओर भागने के लिए मजबूर है।
इसे कोरोना से नहीं बल्कि उससे भी बड़े कोरोना से डर लगता है। कई बार इनके जेहन में कोरोना की शक्ल में देश के मुखिया की शक्ल या मुख्यमंत्री/पुलिस की शक्ल नजर आती है।
ये लक्षण एक फेल हो चुके राज्य के
Corona and Government: दुनिया में कई जगह कोरोना अब अंतिम साँसें गिन रहा है, लोग अब सामान्य अवस्था में लौट रहे हैं। और भारत को रेड जोन घोषित किया जा रहा है उनके देशों में।
वास्तव में हम पिछली सदी की महामारी को दुहरा रहे हैं। 47 से 80 तक का दशक हम भूल जाएं, हम पहले भी अन्धकार में थे, अब उससे भी बड़े अन्धकार में जा चुके हैं।