सत्य ऋषि
धर्म दर्शन जीवन जीने की पद्धति है। इसकी खोज प्राचीन ऋषियों ने की। कालांतर में महात्मा गौतम बुद्ध ने इसे पुनर्जीवित किया। इसका उदय भारतीय प्रायद्वीप में हुआ। इसकी विशेषताओं न्याय, गुण, स्वभाव, संस्कृति, सभ्यता, सदाचरण, मूल्य, धारण आदि शामिल हैं। लेकिन हमारे कर्मों में यह सदाचरण यानी सत्य के आचरण के रूप में प्रतिविंबित होता है।
धर्म का अर्थ होता है, धारण। अर्थात जिसे धारण किया जा सके। धर्म में कर्म की प्रधानता होती है। गुणों को जो प्रदर्शित करे वह धर्म है। धर्म को गुण भी कह सकते हैं। धर्म शब्द में गुण अर्थ केवल मानव से संबंधित नहीं, पदार्थ के लिए भी धर्म शब्द प्रयुक्त होता है। जैसे पानी का धर्म है बहना, अग्नि का धर्म है प्रकाश, गर्मी देना और संपर्क में आने वाली वस्तु को जलाना।
व्यापकता के दृष्टिकोण से धर्म को गुण कहना सजीव, निर्जीव दोनों के अर्थ में नितांत उपयुक्त है। धर्म सार्वभौमिक होता है। पदार्थ हो या मानव पूरी पृथ्वी के किसी भी कोने में बैठे मानव या पदार्थ का धर्म एक ही होता है। उसमें देश, रंग रूप की कोई बाधा नहीं है।
धर्म सार्वकालिक होता है। यानी कि प्रत्येक काल में युग में धर्म का स्वरूप वही रहता है। धर्म कभी बदलता नहीं है। उदाहरण के लिए पानी, अग्नि आदि पदार्थ का धर्म सृष्टि निर्माण से आज तक समान है। धर्म और सम्प्रदाय में मूलभूत अंतर है। धर्म का अर्थ जब गुण और जीवन में धारण करने योग्य होता है तो वह प्रत्येक मानव के लिए समान होना चाहिए।
जब पदार्थ का धर्म सार्वभौमिक है तो मानव जाति के लिए भी तो इसकी सार्वभौमिकता होनी चाहिए। अतः मानव के सन्दर्भ में धर्म की बात करें तो वह केवल मानव धर्म है। लेकिन मानव के कुछ आचरण में जिसे धर्म कहा जाता है, वह धर्म तो है ही नहीं। जैसे धर्म के नाम पर समाज में जो कटुता फैलाई जाती है, वह धर्म कैसे हो सकता है?
कुछ लोग कहते हैं कि विज्ञान और तकनीक के युग में धर्म की क्या आवश्यकता? लेकिन इस युग में भी धर्म ही रक्षा करता है। आज दुनिया भर में विनाशकारी हथियार बना लिए गए हैंं। लेकिन जब उनके इस्तेमाल की बात आती है तो धर्म रोकता है और बताता है कि इसके इस्तेमाल से तमाम निर्दोष लोगों की जान जाएगा, जो सत्य का आचरण नहीं है।
दो पक्षों में जब युद्ध होता है तो युद्ध एक कर्म बन जाता है, लेकिन जीत प्राय: धर्म की ही होती है। कोरोना वासरस फैलाने के आरोप में पूरी दुनिया चीन का घेराव इसीलिए कर रही है, क्योंकि उसने सत्य का आचरण नहीं किया है। वास्तव में सत्य आचरण का एक अर्थ कल्याणकारी कार्य से भी है। कोरोना वायरस फैलने से दुनिया भर के लोगों का अकल्याण ही हुआ है।
यही नहीं, अधर्म करने वालों को भी धर्म की आवश्यकता पड़ती है। जैसे चोरी करने के बाद चोर रकम को आपस में धर्म संगत ढंग से ही बांटते हैं। ऐसा नहीं होता कि वहां भी छीना झपटी शुरू हो जाती है। राजनीतिक दल विरोधी पार्टी पर भले ही हमलावर बने रहें, लेकिन अपनी पार्टी के नेता का बचाव ही करते हैं। यह अपनी पार्टी के प्रति उनका धर्म है। लेकिन सार्वभौमिक धर्म एक अलग अवधारणा है। इस पर फिर कभी चर्चा करेंगे। अभी सत्य को प्रणाम।