
हमारे मित्र संदीप सपकाले ने स्वतंत्रता दिवस के मौके पर फेसबुक पर नेहरू-अंबेडकर की प्रशंसा की है, जिनके विकास के मॉडल के तहत उनका सशक्तिकरण हुआ है। उनका यह विचार अच्छा है। हालांकि पूंजीवाद के साथ मिल कर सामंती शक्तियों का जो सशक्तिकरण हुआ है, उसके मुकाबले समग्र समाज के रूप में दलितों का सशक्तिकरण नगण्य ही कहा जाएगा। जिन थोड़े-से दलितों का सशक्तिकरण हुआ है, वे भी सामंती तौर-तरीके अपनाते हैं।
हमें साथी श्योकराज सिंह बेचैन ने हाल में एक दिन बताया कि दलित-समाज में अफसर होना ही कुछ होना माना जाता है। हम लेखक-विचारक अपने में कुछ भी बने रहें, दलित-समाज में सम्मान नहीं मिलता। दलित राजनीति में भी अफसरों की ही पूछ है। मायावती के करीब कई दलित लेखकों-विचारकों ने पहुंचने की कोशिश की, लेकिन उन्हें कामयाबी नहीं मिली।
सपकाले के विचार के साथ दिक्कत यह है कि उन्होंने नेहरू-अंबेडकर की प्रशंसा करने के साथ, समाजवाद की बात करने वालों की भर्त्साना भी की है। यानी वे नवउदारवाद, उनके मुताबिक जिसके विरोध में कुछ लोग समाजवाद की वकालत करते हैं, को नेहरू और अंबेडकर की विचारधारा की परिणति मानते हैं। और उस परिणति को सही भी मानते हैं। नेहरू आजादी के संघर्ष के दौर से समाजवादी विचारों के लिए जाने जाते थे।
आजादी के बाद सोशलिस्टों के कांग्रेस से बाहर आ जाने के बाद और उनकी तीखी आलोचना के जवाब में उन्होंने कांग्रेस पार्टी का लक्ष्य समाजवाद निर्धारित किया था। अंबेडकर नेहरू से अलग कुछ और भी सोच रहे थे, तभी उन्होंने अपनी अलग पार्टी बनाई थी। उनका लक्ष्य भी लोकतांत्रिक रास्ते से समाजवाद लाना था। सपकाले नेहरू और अंबेडकर को पूंजीवाद के समर्थन में खींचते हैं। इस तरह की खींचतान करके पूंजीवाद का समर्थन करने वाले दलित विचारकों की कमी नहीं है।
पूंजीवाद अगर दलितों को सामाजिक-आर्थिक मुक्ति दिला दे तो उसके स्वागत का कम से कम भारत में पूरा औचित्य बनता है। लेकिन ऐसा संभव नहीं है। पूंजीवाद चाहता तो कुछ निर्णायक प्रयास कंपनी राज के दौर में ही कर सकता था। मसलन, अंग्रेज चाहता तो जमींदारी प्रथा लागू करते वक्त कुछ जमींदार दलित समाज से भी बना देता।
आदिवासियों के जंगल पर धावा बोलने वाले अंग्रेज को जमींदारी बड़ी बात लगती थी, तो दलितों को खेती अथवा बागवानी के लिए कुछ जमीन दे देता। चाहे चर्म उद्योग का ही, एकमात्र अधिकार दलितों को दे देता। लेकिन उसने ऐसा नहीं किया। उसका सहोदराना सामंती शक्तियों से था – भारत में भी और इंग्लैंड में भी। हमें हैरानी होती है कि अश्वेीतों के साथ अमेरिकी गोरों ने जो किया, उसके बावजूद दलित विचारक अमेरिका का गुणगान करते हैं!