
रविवार को राज्यसभा में जोरदार हंगामे के बीच कृषि से संबंधित दो विवादित बिलों को मंजूरी दे देने के बाद एक ओर जहां विपक्ष मुखर है वहीं कई किसान संगठन सड़कों पर उतर गए हैं। मोदी सरकार इन विधेयकों को किसानों के हित में ऐतिहासिक कदम बता रही है तो विपक्ष और लाखों किसान कॉरपोरेट घरानों के आगे मजबूर होने की आशंका जता रहे हैं। ऐसे भी बहुत से किसान हैं जो इस मामले में कन्फ्यूजन की स्थिति में हैं।
भाजपा के मातृ संगठन आरएसएस के भारतीय किसान संघ ने भी कृषि बिल में न्यूनतम समर्थन मूल्य सुनिश्चित करने की बात करते हुए इसका विरोध किया है। यदि यह बिल वापस न लिया गया तो राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद के हस्ताक्षर होने के तुरंत बाद कानून का रूप ले लेगा। मोदी सरकार का कहना है कि इस बिल के कानून बन जाने पर किसान राज्य की सीमा के अंदर या फिर राज्य से बाहर, देश के किसी भी हिस्से में अपनी उपज का व्यापार कर सकेंगे।
तर्क दिया जा रहा है कि किसान मंडियों के अलावा व्यापार क्षेत्र में फार्मगेट, वेयर हाउस, कोल्डस्टोरेज, प्रोसेसिंग यूनिटों पर भी बिजनेस करने के लिए पूरी तरह से स्वतंत्र होंगे। बिचौलियों को दूर करने के लिए किसानों से प्रोसेसर्स, निर्यातकों, संगठित रिटेलरों का सीधा संबंध स्थापित करने की बात मोदी सरकार कर रही है।
एमएसपी को खत्म न करने की बात की जा रही है पर बिल में यह बात मेंशन न होने की वजह से बाहर की मंडियों को फसल की कीमत तय करने की अनुमति देने पर किसान आशंकित हैं। मोदी सरकार के कार्यकाल की बात करें तो स्थिति साफ हो जाती है कि यह सरकार किसान, मजदूर और युवाओं का भविष्य दांव पर लगाकर कॉरपोरेट घरानों के लिए ही काम कर रही है।
चाहे नोटबंदी का मामला हो या फिर कोरोना वायरस के बहाने लॉकडाउन का, कॉरपोरेट घरानों ने भरपूर फायदा उठाया है। जहां नोटबंदी में इन घरानों ने अपने काले धान को सफेद कर लिया वहीं लॉकडाउन के बहाने बड़े स्तर पर छंटनी भी की। बचे कर्मचारियों को नौकरी जाने का भय दिखा कर उनका भरपूर शोषण किया जा रहा है।
इन कॉरपोरेट घरानों का यही खेल अब किसानों के साथ भी खेले जाने की आशंका जताई जा रही है। कृषि बिल के विरोध में भले ही विपक्ष में बैठे राजनीतिक दल और किसान संगठन आंदोलन कर रहे हों पर क्या वास्तव में ये लोग किसानों की समस्याओं के प्रति चिंतित हैं। यदि ऐसा है तो किसानों की हालत क्यों नहीं सुधर रही है?
ऐसे में प्रश्न उठता है क्या बस मोदी सरकार ही किसानों को ठग रही है ? जमीनी हकीकत तो यह है कि यदि पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह को छोड़ दिया जाए तो लगभग सभी नेताओं ने किसानों को बस ठगा ही है। किसानों के पक्ष में सरकारों ने कितनी योजनाएं लागू कीं, कितनी कृषि ऋण माफी योजनाएं लाई गईं? पर किसानों का कोई भला न हो सका।
हां, किसानों के हित की योजनाओं का लाभ छोटे व्यापारी, ब्यूरोक्रेट्स और नेता जरूर उठाते रहे हैं। बात मोदी सरकार की ही हो तो इस कोरोना काल में किसान ही है जिसने देश को बचा लिया। यदि किसान अन्न की आपर्ति न करता तो देश में भुखमरी की समस्या पैदा होने से कोई नहीं रोक सकता था।
आज प्रधानमंत्री किसान की उपज को लेकर बड़ी-बड़ी बातें कर रहे हैं पर इनके पिछले कार्यकाल में नीति आयोग के तत्कालीन उपाध्यक्ष अरविंद पनगढ़िया आयोग की वेबसाइट पर ब्लाग लिखकर किसानों को खेती छोड़ कर अन्य धंधों में लगने के लिए उकसा रहे थे। उनके अनुसार किसान कृषि की अपेक्षा औद्योगिक व सेवा क्षेत्र में लगकर ज्यादा समृद्ध हो सकते हैं।
दरअसल, मोदी सरकार किसानों को तबाह कर कारपारेट घरानों के भरोसे देश का विकास करना चाह रही है, जबकि जगजाहिर है कि हमारे देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ खेती ही है। मेरा मानना है कि यदि सरकारें किसान को सम्पन्न कर दें तो देश अपने आप में समृद्ध हो जाएगा। सरकार की हठधर्मिता देखिए कि जब खेती को बढ़ावा देना चाहिए तब यह सरकार पूंजीपतियों के दबाव में किसानों की जमीन हथियाने पर तुली है।
यही मोदी सरकार तीसरी बार भूमि अधिग्रहण अध्यादेश लाई थी। वह तो राज्यसभा में पास नहीं हो पाया था। अब राज्यसभा में भी बहुमत होने पर मोदी सरकार की अब भूमि अधिग्रहण अध्यादेश लाने की भी आशंका बलवती हो गई है। यह सरकार की किसानों को ठगने की ही प्रवृत्ति रही है कि किसानों का लगातार खेती से मोह भंग हो रहा है।
पिछले दशक में महाराष्ट्र में सबसे अधिक सात लाख 56 हजार, राजस्थान में चार लाख 78 हजार, असम में तीन लाख 30 हजार और हिमाचल में एक लाख से अधिक किसान खेती छोड़ चुके हैं। उत्तराखंड, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर और मेघालय में भी किसानों की संख्या कम हुई है। मोदी सरकार ने रबी की फसल का न्यूनतम समर्थन मूल्य निर्धारित कर भले ही किसानों को रिझाने की कोशिश की हो पर देश में आने वाली वाली फसल धान की है और भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के अध्ययन पर यकीन करें तो धान की उपज भी लगातार घट रही है।
सिंचित धान की उपज में 2050 तक सात और वर्ष 2080 तक लगभग दस फीसद की कमी हो सकती है। मतलब साफ है, सरकार को किसानों की नहीं बल्कि कॉरपोरेट घरानों की चिंता है।
देश में किसान हित की योजनाएं तो बहुत चल रही हैं पर उनका लाभ या तो अधिकारी उठा रहे हैं या फिर बिचौलिए। ये कॉरपोरेट घराने भी एक तरह से बिचौलिये ही बनने वाले हैं।
कागजी आंकड़े देखें तो किसानों को सब्सिडी पर खाद, बीज भी दिया जा रहा है, कर्जा भी दिया जा रहा है और उनके कर्जे माफ भी किये जा रहे हैं पर इन सबका फायदा जमीनी स्तर पर किसानों तक नहीं पहुंच पा रहा है। किसानों के पास जोत का रकबा बहुत कम रह गया है।
बात उत्तर प्रदेश की ही ले लीजिए। सरकारी आंकड़ों की जुबान में बोलें तो प्रदेश की दो करोड़ 42 लाख दो हजार हेक्टेयर भूमि में से खेती योग्य भूमि एक करोड़ 68 लाख 12 हजार हेक्टेयर है। यह हिसाब कुल भूमि का 69.5 फीसद बैठता है। प्रदेश में 53 फीसद किसान और 20 फीसद खेतिहर-मजदूूर हैं। यानी कि तीन-चौथाई लोग खेती करते हैं।
हर वर्ष करीब 48 हजार हेक्टेयर खेती योग्य भूमि कंक्रीट युक्त हो रही है। प्रदेश की सालाना आय का लगभग 31.9 फीसद खेती से आता है, जबकि 1971 में यह प्रतिशत 57, 1981 में 50 और 1991 में 41 हुआ करता था। तथ्य यह भी है कि प्रदेश में करीब 75 फीसद किसान एक हेक्टेयर से कम जोत वाले हैं।
यह किसानों की बेबसी ही है कि उनका शोषण राजतंत्र से ही चला आ रहा है। पहले राजा-महाराजाओं, उनके ताबेदारों ने किसानों का शोषण किया। फिर मुगल आए तो उन्होंने किसानों को जमकर निचोड़ा। अंग्रेजों ने तो तमाम हदें पार कर दीं। वे जमीदारों से उनका शोषण कराते थे। देश आजाद होने के बाद भी किसान कर्ज, तंगहाली और बदहाली से आजाद नहीं हुए।
ऐसा नहीं कि सरकारें किसानों की तंगहाली पर रोक के लिए कुछ न करती हों। किसानों को कर्जे से मुक्त करने के लिए समय-समय पर कृषि माफी योजनाएं भी लाई गईं। पता चला कि किसानों को इनका कोई खास फायदा नहीं हुआ। हां, किसानों के माथे से डिफाल्टर का धब्बा हटने की रफ्तार में तेजी जरूर आ गई।
कांग्रेस यूपीए सरकार की 2008 की कृषि ऋण माफी योजना को लेकर बड़े-बड़े दावे करती है पर कैग रिपोर्ट में खुलासा हुआ था कि यूपीए सरकार की ओर से लाई गई उस कृषि ऋण माफी योजना में भारी घोटाला हुआ था। 25 राज्यों के 92 जिलों से 715 बैंक ब्रांचों में भारी गड़बड़ियां देखने को मिली थीं। कर्ज माफी योजना में घोटाले का मामला संसद में भी उठा, पर क्या हुआ ?
ढाक की तीन पात। तब विपक्ष में यही भाजपा थी। अब जब भाजपा ने दूसरी बार सरकार बनाई तब भी मामले की जांच कराने की जहमत तक नहीं उठाई। वजह साफ है कि इस योजना का फायदा किसानों को कम छोटे व्यापारियों और बैंकों को ज्यादा हुआ।
1989 में वीपी सिंह सरकार भी कृषि ऋण माफी योजना लेकर आई थी। तब भी डिफाल्टर किसान इस योजना से ज्यादा लाभान्वित हुए थे। 2012 में अखिलेश सरकार बनने के बाद किसानों का 50 हजार रुपये तक का कर्ज माफ़ करने की बात थी पर जमीनी हकीकत यह है कि अखिलेश सरकार ने ब्याज जमा करने वाले किसानों का कर्ज माफ़ करने का पेच फंसाकर किसानों को बेवकूफ बना दिया था। कुल मिलाकर हमेशा किसानों को ही ठगा गया।