
Farmers Protest: मीडिया के एक धड़े की शब्दावली में आंदोलनजीवी जैसे शब्द तैर रहे थे। जबकि सरकार किसी भी कीमत पर समस्या का समाधान चाहती थी। जानते हैं कि मीडिया का यह वर्ग किस प्रकार सरकार, किसानों और आम जनता को गुमराह करता रहा।
Farmers Protest: सरकार, किसानों और आम जनता को किसने किया गुमराह?
श्रीकांत सिंह
Farmers Protest: मीडिया का एक धड़ा, जिसे वरिष्ठ पत्रकार रवीश कुमार ने गोदी मीडिया नाम दिया था, आज वह न तो घर का रहा और न ही घाट का। तीनों खेती कानून वापस ले लिए जाने के बाद अब आंदोलनकारी किसानों की समस्याओं पर गंभीरता से विचार किया जा रहा है। इसी का परिणाम है कि एक समाधान आपके सामने है।
लेकिन मीडिया के इस धड़े को समझ में ही नहीं आया कि अपनी खीझ कैसे निकाले? तभी तो आंदोलनजीवी जैसे शब्द उसकी शब्दावली में तैरते रहे। इस तरह की शब्दावली से ही लोग गुमराह होते रहे और सरकार भी न घर की रही और न घाट की।
हालांकि पीएम मोदी ने भी आंदोलनजीवी शब्द का इस्तेमाल किया था। लेकिन किसानों के अडिग, अविचल और अहिंसक आंदोलन की ताकत ने सरकार की हेजेमनी यानी संपूर्ण आधिपत्य को किसान आंदोलन के सामने घुटने टेकने को मजबूर कर दिया।
आंदोलनजीवियों की वजह से बचा देश
आंदोलनजीवी शब्द को थोड़ा और स्पष्ट करते हैं। किसान के बारे में तो आप जानते ही हैं कि उसे अनाज उगाना आता है, शब्द उगाना नहीं। अपनी समस्या को सरकार के सामने रखने के लिए उसे एक कुशल शब्दशिल्पी की जरूरत थी। कुछ किसान नेता इस कार्य में माहिर थे। उनके शब्दों ने ही सरकार को समाधान के मुकाम तक पहुंचाया।
दरअसल, संघर्ष करने के लिए यदि आपके पास पर्याप्त भौतिक बल नहीं है तो आप सटीक शब्दों का सहारा ले सकते हैं। शायद इसी संदर्भ में कहा गया था पेन इज माइटी दैन शोर्ड। अर्थात कलम तलवार से ज्यादा ताकतवर है। और यही ताकत किसानों के काम आई। लेकिन गोदी मीडिया का दुराग्रह यह रहा कि शब्दशिल्पी किसान नेताओं को खेत में होना चाहिए। उनकी जीविका तो आंदोलन के जरिये ही चलती है। इसी अर्थ में उन्हेंं आंदोलनजीवी कहा गया। लेकिन अब वे आंदोलनजीवी होने पर गर्व महसूस कर रहे होंगे।
तब कहां थे ये तथाकथित पत्रकार?
सवाल है कि जब मजीठिया वेजबोर्ड का हक पाने के लिए पत्रकारों का एक वर्ग संघर्ष कर रहा था, तब किसान आंदोलन से संबंधित लोगों को आंदोलनजीवी कहने वाले ये तथाकथित पत्रकार कहां थे? क्या इन्हें पत्रकार मानने का पाप हम नहीं कर रहे हैं? ये वही लोग हैं जो पत्रकारों की मुसीबत का मजाक बना रहे थे।
और अगर अखबार कर्मचारी कभी आंदोलन चलाने के लिए विवश होंगे तब ये उन्हें आंदोलनजीवी कहने के लिए मुंह उठाए चले आएंगे। आखिर कौन हैं ये लोग? इन्हें क्या संज्ञा दी जाए? जरूरत है कि इन्हें ठीक से पहचान लिया जाए। क्योंकि आज जिन गरीब किसानों की फसल घुमंतू जानवर नष्ट कर रहे हैं, उनके लिए इनके शब्दकोश में कोई जगह नहीं है। कहीं चर्चा तक नहीं हो रही है कि गरीब, छोटे और मजबूर किसानों की फसल बचाने के लिए कोई कदम क्यों नहीं उठाया जा रहा है?
वाचिक हिंसा से देश को गुमराह करने की साजिश
सबसे बड़ी बात ये कि आज लोकतंत्र खतरे में है। संसद में पत्रकारों के प्रवेश को रोक दिया गया है। कोरोना के नाम पर। लेकिन चुनावी रैलियां बदस्तूर जारी हैं। कोरोना प्रोटोकाल का इन रैलियों पर कोई असर देखने को नहीं मिल रहा है। अंधाधुंध भीड़ बटोरने के प्रयास किए जा रहे हैं। कुछ पत्रकारों ने विरोध भी किया, लेकिन ये तथाकथित पत्रकार वहां भी नहीं पहुंचे। ये तो सेलेब्रिटीज की शादियों में पत्तल चाटने तक को आतुर पाए जाते हैं।
यही नहीं, रैलियों का नशा ऐसा कि सीडीएस विपिन रावत के निधन पर उन्हें तुरंत श्रद्धांजलि अर्पित करना भी उचित नहीं समझा गया। लेकिन वाचिक हिंसा से परहेज कौन कर रहा है? आंदोलनकारी किसानों को क्या नहीं कहा गया? जो कहा गया, वह सब आप जानते ही हैं। लेकिन वाचिक हिंसा के जरिये देश को गुमराह करने वाली तथाकथित पत्रकारों की यह फौज देश को कितना नुकसान पहुंचाएगी, इसका अंदाजा लगाना भी कठिन है।
जनता की लाशों पर टीआरपी का खेल
नई विश्व व्यवस्था में आज हेजेमनी यानी संपूर्ण आधिपत्य के लिए संघर्ष चल रहा है। अमेरिका अपनी चलाना चाहता है तो रूस अपनी। चीन अपनी चलाना चाहता है तो अफगानिस्तान और पाकिस्तान अपनी। इसी ढर्रे पर देश में भी संघर्ष जारी है। और ये तथाकथित पत्रकार कभी भी इस संघर्ष को समाप्त नहीं होने देंगे। क्योंकि ये आम जनता की लाशों पर टीआरपी का खेल खेलने को आतुर नजर आते हैं। इनका लोककल्याण या जनकल्याण से कोई वास्ता नहीं है।
ऐसा भी कहा जा रहा है कि पीएम मोदी ने सिर्फ सरकार समर्थक किसानों से माफी मांगी थी। लेकिन पीएम मोदी ने सिर्फ सरकार समर्थक किसानों से नहीं, देश की संपूर्ण जनता से माफी मांगी थी। पीआईबी के इस वीडियो में कोई भी हिस्सा काटा नहीं गया है। यह वीडियो 19 नवंबर 2021 को पीआईबी की वेबसाइट पर अपलोड किया गया था। उसका लिंक नीचे दिया जा रहा है। इसे ध्यान से देखें और स्वस्थ, सानंद, सूचित महसूस करें।
पत्रकार समाज के सचिव, गुरु और वैद्य
Farmers Protest: गोस्वामी तुलसीदास की लोकप्रिय कृति श्री राम चरित मानस का अध्ययन करें तो पता चलेगा कि ऐसा सामाजिक चिंतन अनन्य है। एक दोहे का उदाहरण लेते हैं। सचिव, वैद, गुरु तीन जौं प्रिय बोलहिं भय आस। राज, धर्म, तन तीन कर होहिं बेगिही नाश। अर्थात सचिव, वैद्य और गुरु ये तीनों अगर भय या लोभवश प्रिय बोलने लगें तो राज्य, धर्म और शरीर का शीघ्र ही विनाश हो जाता है।
और पत्रकार समाज के सचिव, वैद्य और गुरु तीनों होते हैं। यह हमारे समाज और देश का दुर्भाग्य है कि कुछ तथाकथित पत्रकार भय और लोभ के चक्कर में सरकार की हां में हां मिलाते हैं। जबकि सरकार यह अच्छी तरह समझ गई है कि उसे प्रिय बोलने वाले पत्रकारों ने ही बर्बाद किया है। उसे फिलहाल तारीफ नहीं, सच से रूबरू होने की जरूरत है। और हमारे कुछ तथाकथित पत्रकारों ने सरकार को हमेशा अंधेरे में रखा है। सुखद यह है कि सरकार की आंख खुल चुकी है। बहुत बहुत शुक्रिया।