सी एस राजपूत
नोएडा। वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. पुष्पा सिंह ने साहित्य की सभी विधाओं में रचनाएं की हैं। उपन्यास, कहानी, लघुकथा, कविता, गजल, शायरी, प्रबन्धकाव्य और बाल साहित्य में बालक कहानी, बाल उपन्यास, बाल कविताएं आदि में उन्होंने अपनी प्रतिभा का उपयोग किया है। विशाल साहित्य सरोवर देने वाली पुष्पा सिंह अब साध्वी अरुंधती गिरि जी महाराज बन गई हैं।
इस संदर्भ में उन्होंने कहा, देखिए चरन जी इंसान का जीवन बहुत ही पुण्यों के बाद प्राप्त होता है। और वह अपने देश व राष्ट्र के हित में भी कुछ करना चाहता है। अपनी लेखनी से मैंने समाज की समस्याओं, परिस्थितियों में जो कुछ घटित हो रहा है उन सभी समस्याओं को समाज तक पहुंचाने का कार्य किया।
अब मैं आज की युवा पीढ़ी को संस्कारवान बनाने और स्वामी विवेकानंद जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व को अपनाने के लिए प्रयासरत रहूंगी। देश में समभाव से समरसता का वर्चस्व बढ़ाना हमारा नैतिक दायित्व है। यह देश ऋषियों मुनियों के आध्यात्मिक अनुष्ठानों का महासंगम है। भारत नाम भी भरत के नाम पर रखा गया।
हमारे परम पूज्य गुरुदेव ब्रह्मलीन स्वामी प्रज्ञानंदगिरी जी महामंडलेश्वर महाराज विश्व संत धर्म सम्राट सदगुरु हमें सदैव समरसता, मानवता का संदेश देते रहें हैं। मेरी संन्यास दीक्षा नवंबर में तय थी। पर गुरुदेव के ब्रह्मलीन होने से यह पावन कार्य उनके अवतरण दिवस पर परम पूज्य साध्वी विभानंद वो गिरीजी महामंडलेश्वर, प्रज्ञापीठाधीश्वर महाराज जी ने संपन्न कराई।
समय कम था। और मुझे प्रज्ञापीठ प्रज्ञा धाम कटंगी जबलपुर पहुंचना था। यह सफर धर्म पुत्र धीरेंद्र तिवारी आजाद और अधिवक्ता राजेश सुप्रीम कोर्ट के सहयोग से संभव हो सका। और परिवार के सभी सदस्यों की अनुमति से मेरा मार्ग प्रशस्त हुआ। जेब में एक रुपया भी नहीं था और निकल पड़े सफर पर।
लेकिन मां आदिशक्ति श्री भवानी जगदम्बा ने सब कुछ सहज भाव से किया। मैं आगरा से बीस किलोमीटर दूरी से रेनू सिंह को फोन किया और कहा कि भोजन और दक्षिणा भिक्षा लेने आ रही हूं। मेरी मित्र ने बहुत सहज और सरल प्रवृति से हमारा स्वागत करते हुए हमें विदा किया। वहां उनकी मां और सांस दोनों ही घर पर उनके सानिध्य में रहती हैं।
उन दोनों मां का आशिर्वाद प्राप्त हुआ। लगा कोई तो शांत है। अति प्रिय भाई विपुल जो मेरी गोद में पले बढ़े हैं, लेकिन अपने बड़े भाई का दायित्व निभाने में सदैव अग्रणी रहे हैं। उस घर में मैं दादा-दादी के बाद अपनी पीढ़ी में सबसे अधिक जुड़ी रही हूं। वैसे तो सभी भाई बहुत आदर स्नेह देते हैं। और मैं भी बहुत प्रेम दुलार से उन्हें आशीष देती हूं।
पर किसी भी प्रकार की समस्या आती है तो विपुल ही सबसे ज्यादा याद आते हैं। इस प्रकार मैंने अपने साहित्य सृजन के साथ संन्यास मार्ग पर निरंतर चलते रहने की आदत को बचपन से ही चिंतन मनन से पल्लवित, पोषित किया है।
यह मार्ग आत्मसात किया है। एक सर्वसमर्थ समाज में समरसता लाने जैसे प्रयास निरंतर करते हुए मैं अपने लक्ष्य को प्राप्त करने की दिशा में अग्रसर रहूंगी। और अपने गुरुदेव और गुरु मां के प्रज्ञा मिशन को आगे बढ़ाते हुए स्वस्थ समाज का निर्माण करुंगी।
बस यही उद्देश्य है मेरे जीवन का। और यह सब मुझे प्रोफेसर नामवर सिंह जी बाबूजी से ही मिला है। वे मेरे साहित्यिक पिता और गुरु हैं। साथ ही आचार्य निशांत केतु जी प्रेरणास्रोत और अध्यात्मिक गुरु रहे हैं। यह मेरे लिए परम सौभाग्य की बात है कि मैं ऐसे महापुरुष, श्रेष्ठ साहित्य पुरुष के सानिध्य में लेखन कार्य करती रही हूं।
गुरु दीक्षा देने वाले भी श्रेष्ठ संत विश्व संत धर्म सम्राट सदगुरु ब्रह्मलीन स्वामी प्रज्ञानंदगिरी जी महामंडलेश्वर महाराज जी हैं। और संन्यास दीक्षा देने वाली साध्वी विभानंद गिरीजी महामंडलेश्वर महाराज जो गुरुदेव की उत्तराधिकारी प्रज्ञा पीठाधीश्वर हैं।
ऐसे में कैसे हम स्वयं को कब तक घर में बांध पाते। यह नियति ने ही तय कर रखा था। और समय आने पर स्वयं ही सब कुछ होता गया। संन्यास का समय गुरु मां ने फरवरी में रखा था। लेकिन गुरुदेव के अवतरण दिवस पर कार्यक्रम संपन्न होना परम सौभाग्य की बात है।
आज आपसे यह सब बातें करते हुए बहुत ही अच्छा लग रहा है। अब सभी रिश्तों से मुक्त हो कर मैं आगे बढ़ती जा रही हूं। विशाल और विशाखा का बहुत बड़ा त्याग है यह मेरे लिए। और मुझे यह भरोसा है कि वे सब कुछ यथावत संभाल लेंगे। क्योंकि वे बहुत ही संस्कारी पिता के बच्चे हैं। और सदैव मेरा साथ दिए हैं।
कभी भी मुझे किसी भी बंधन में बांध कर नहीं रखेंगे। और अनंत शुभकामनाएं शुभाशीष देते हैं कि वे मेरे बगैर जीवन में आगे बढ़ते हुए अपना लक्ष्य प्राप्त करें। परित्याग की परिभाषा लिखना मेरे जीवन में एक महत्त्वपूर्ण कार्य बन गया है।