
सत्य ऋषि
आप देवताओं और दानवों के समुद्र मंथन के बारे में जानते होंगे। धर्म ग्रंथो में तो तीन प्रकार के मंथन का वर्णन है। लेकिन क्या आप जानते हैं कि हमारे शरीर में भी एक प्रकार का मंथन अनवरत चल रहा है। योग विज्ञान की बात करें तो हमारे शरीर में तीन नाड़ियों इड़ा, पिंगला और सुसूमना की व्यवस्था है। सुसूमना नाड़ी के एक ओर इड़ा तो दूसरी ओर पिंगला नाड़ी है। ये दोनों नाड़ियां मथानी की रस्सी के दो छोर हैं। और सुसूमना नाड़ी मथानी का काम करती है।
इसे इस तरह से समझ सकते हैं कि जब हमारी सांस चलती है तो एक नासिका ज्यादा खुली होती है और दूसरी कम। जब दोनों नासिकाएं बराबर चलती हों तो यह सुसूमना नाड़ी के सक्रिय होने की अवस्था है। खैर। नाड़ियों पर चर्चा फिर कभी। अभी हम शरीर में मंथन की बात कर रहे हैं। जिस प्रकार समुद्र का मंथन हुआ था और हलाहल विष निकला था, ठीक उसी प्रकार हमारे शरीर का मंथन होता है तो तमाम विषैले अवशिष्ट बाहर निकलते हैं।
शरीर के मंथन से सकारात्मक शक्तियां भी पैदा होती हैं। उनका अपना प्रभाव होता है। शरीर के मंथन से जब अधिकतम सकारात्मक शक्तियां पैदा होती हैं, तो व्यक्ति संत बन जाता है। इसी प्रकार जब अधिकतम नकारात्मक शक्तियां पैदा होती हैं, तब व्यक्ति राक्षस जैसा अपराधी बन जाता है। इन शक्तियों की मात्रा के अनुरूप व्यक्ति अच्छा और बुरा बनता है। यह सब बहुत कुछ माहौल और परवरिश पर भी निर्भर करता है।
मंथन के दूसरे संदर्भों की बात करें तो हमारे शास्त्रों में सागर मंथन की विशद चर्चा है। जैसा कि हम सभी जानते हैं कि देवों और असुरों के बीच सागर मंथन हुआ। मंद्राचल गिरि मथानी बनाया गया और वासुकि नाग को रस्सी। मंथन से चौदह रत्नो की प्राप्ति हुई। पौराणिक कथाओं के अनुसार समुद्र मंथन से निकलने वाली वस्तुओं को रत्न कहा गया है और वे चौदह रत्न थे।
हलाहल (विष), कामधेनु, उच्चैःश्रवा घोड़ा, ऐरावत हाथी, कौस्तुभ मणि, कल्पद्रुम, रम्भा, लक्ष्मी, वारुणी (मदिरा), चन्द्रमा, पारिजात वृक्ष, पांचजन्य शंख, धन्वन्तरि वैद्य और अमृत। समुद्र मंथन से निकले थे ये 14 रत्न अलग अलग अर्थों में जाने जाते हैं। इनके रहस्यों पर भी बाद में चर्चा करेंगे।
राजा निमि के शरीर का ऋषियों ने मंथन किया था। उसमें सोने की मथानी और रेशम की रस्सी का प्रयोग किया गया था। तन का मंथन हुआ। मंथन से चौदह पुत्र उत्पन्न हुए। बारह पुत्रों ने संन्यास ग्रहण कर लिया। लेकिन तेरहवें पुत्र जनक (शीरध्वज) को राजा बनाया गया। ये पुत्र थे जनक (शीरध्वज), जीव, गव, (कुशध्वज), सुमंत, सार, अतिसार, अमृत, अभय, अंशुमान, अमन, आदि, अमित, अगाध और अनन्त।
इसी प्रकार राजकुमारी वृजेश्वरी का विवाह न होने की भविष्यवाणी राज ज्योतिष्यों ने की थी।राजकुमारी ने ये बात नारद मुनि को बताई। नारद ने राजकुमारी से श्री कृष्ण का तप करने के लिए कहा। राजकुमारी ने घोर तपस्या की, तो भगवान श्री कृष्ण प्रकट हुए। भगवान श्री कृष्ण ने वृजेश्वरी के साथ मिलकर क्षीर सरोवर का मंथन किया।
उसमें काठ की मथानी और सन की रस्सी का प्रयोग किया गया। मंथन से चौदह पुरुषों की उत्पत्ति हुई, जिनके साथ वृजेश्वरी का विवाह हुआ। चौदह पुरूषों के नाम हैं, कृष्णेश्वर, पिंगल, कनक, पार्थ, उदधि, बिन्दु, अचल, शूलपाणि, सूरसेन, संदल, सौरभ, सारंग, साज और गोविंद।
विवाह होने के बाद बृजेश्वरी ने श्री कृष्ण से विनती की और कहा, हे प्रभु आप की कृपा से मुझे चौदह पति तो प्राप्त हो गए, लेकिन समाज क्या सोचेगा? संसार के लोग मुझे ताना मारेंगें तो इस संसार में मैं कैसे जी सकूंगी।
श्री कृष्ण ने बृजेश्वरी पर कृपा की और चौदहों पुरुषों को एक शरीर में समाहित कर दिया जो कृष्णेश्वर के नाम से जाना गया। एक शरीर में चौदह आत्माओं ने वास किया। ऊँ श्री कृष्णाय गोविन्दाय बलभद्राय वासुदेवाय पर काया प्रवेशाय नमो नम: ऊँ। आज इतना ही। सत्य को प्रणाम।