लगभग 22 साल पुराने इस आलेख को दोबारा जारी किया जा रहा है। संघ संप्रदाय अपनी यह घोषणा दोहराता रहता है कि अयोध्या में जल्दी ही श्रीराम का भव्य मंदिर बनाया जाएगा। बीच-बीच में यह खबर भी आती रहती है कि अयोध्या के बाहर मंदिर के लिए पत्थर तराशने का काम तेजी से चल रहा है। निर्माणाधीन मंदिर के मॉडल की पूरे देश में झाँकी निकालने की योजना की भी खबर है।
संघ संप्रदाय के लिए मंदिर-निर्माण का कार्य जारी रखना और उसका प्रचार करते रहना जरूरी हैः राममंदिर आंदोलन को जीवित बनाए रखने के लिए और लोगों के बीच अपनी साख बनाए रखने के लिए, कि जो धन उनसे लिया गया है, वह मंदिर-निर्माण के कार्य में लगाया जा रहा है। राममंदिर आंदोलन जीवित बना रहता है तो अयोध्या में मंदिर के निर्माण को रोक पाना असंभव ही होगा।
जैसी कि संघ संप्रदाय की शपथ है, ज्यादा संभावना यही है कि मंदिर ‘वहीं’ बनेगा। निर्माण-स्थल के थोड़ा बहुत ही इधर-उधर होने की गुंजाइश है। इस तरह राम का संघावतार हो जाएगा।सोचने की बात अब यह है कि संघ संप्रदाय के मंदिर में जो राम विराजेंगे, उसके प्रतीकार्थ क्या वही होंगे जो जनमानस में आमतौर पर बने हुए हैं? यह सवाल धार्मिक उतना नहीं, जितना हमारे सामाजिक, सांस्कृतिक जीवन से जुड़ा है।
‘राम-राम’ या ‘सिया-राम’ में जो सहजता और आत्मीयता होती है, वह संघ के ‘जैश्रीराम’ में नहीं है। राममंदिर आंदोलन के चलते राम के प्रतीकार्थ का न केवल अर्थ-संकोच हुआ है, अवमूल्यन भी हुआ है। इस पर आगे चर्चा करने से पहले यह जान लें कि हिंदुस्तान और दुनिया में राम का किस्सा बहुत पुराना है और उसका रूप हमेशा एक जैसा नहीं रहा है। वैदिक काल में ही राम की चर्चा मिल जाती है।
तदनंतर रामकथा की पहली महत्त्वपूर्ण कृति वाल्मीकि द्वारा रचित ‘रामायण’ में वर्णित दशरथ पुत्र राम परमब्रह्म नहीं हैं। परमब्रह्म के अवतार के रूप में उनकी प्रतिष्ठा पौराणिक काल में होती है और उनकी वाल्मीकि के राम से अभिन्नता प्रतिपादित की जाने लगती है। धीरे-धीरे राम और उनके पूरे चरित का पूर्ण अलौकिकीकरण होता गया है। साथ ही उसकी व्याप्ति जैन और बौद्ध धर्मों से लेकर दक्षिण भारत और निकटवर्ती एशियाई देशों तक होती गई है।
वाल्मीकि कृत ‘रामायण’ की आधिकारिक कथा से लेकर गोस्वामी तुलसीदास कृत ‘रामचरितमानस’ की कल्पना और भक्ति भावित कथा तक राम के चरित ने एक लौकिक महानायक से भक्त वत्सल भगवान तक की लंबी यात्रा तय की है।
यह सही है कि जैन और बौद्ध ग्रंथों में राम और उनके चरित का वैसा ही वर्णन नहीं मिलता जैसा ब्राह्मण ग्रंथों में-विष्णु के अवतार के रूप में-मिलता है। फिर भी उन्होंने रामकथा की लोकप्रियता के बहाव में उन्हें अपने धर्म में महत्त्वपूर्ण स्थान दिया है। बौद्धों ने राम को बोधिसत्व के रूप में और जैनियों ने त्रिषष्टि महापुरुषों में एक बलदेव के रूप में चित्रित किया है।
बौद्ध धर्म के माध्यम से रामकथा निकटवर्ती एशियाई देशों में भी फैली और वहाँ की संस्कृति का हिस्सा बन गई। हालाँकि उन देशों में रामकथा के प्रति आकर्षण यहाँ की तरह राम के प्रति किसी किसी तरह की भक्ति-भावना नहीं है। अलबत्ता आठवें दशक में प्रभुपाद के नाम से प्रसिद्ध भक्तिवेदांत स्वामी अभयाचरण ने अमेरिका में ‘इस्कान’ की स्थापना कर कृष्ण के साथ राम के प्रति भी अपने अमेरिकी और यूरोपवासी शिष्यों में भक्ति-भावना जगाई।
प्रभुपाद के अमेरिकी शिष्य कीर्तनानंद स्वामी भक्तिपाद ने अमेरिकी पाठकों के लिए भक्ति की दृष्टि से ‘रामायण’ लिखी है, जिसका हिंदी अनुवाद भारत में उनके शिष्य भक्तियोग स्वामी ने नवमधुवन आश्रम, ऋषिकेष की ओर से प्रकाशित किया है।
राम के चरित्र और कथा के देशी-विदेशी विविध रूपों के विवरणों का आज महज ऐतिहासिक या साहित्यिक महत्त्व ही है। कम से कम उत्तर भारत की सवर्ण और मध्यवर्ती जातियों की आबादी की भक्ति-भावना का आधार तुलसी के राम हैं, जिन्हें उन्होंने राजा दशरथ के राजकुमार पुत्र से ऊपर उठा कर, पूरे चरित सहित भक्ति और प्रेम की भावना में सराबोर कर दिया।
‘मानस’ में रावण भी सीता का हरण बदले या काम-वासना से प्रेरित होकर नहीं, मोक्ष पाने के उद्देश्य से करता है और राम के हाथों मारा जाकर सायुज्य मुक्ति प्राप्त कर लेता है। तुलसी ने सभी खल पात्रों की कुटिलता, उग्रता और छल जैसे दुर्गुणों को राम-भक्ति का अंग बना दिया है। तुलसी के इस उद्यम का उनकी जीवन-दृष्टि के संदर्भ में अध्ययन होना अभी बाकी है।
कबीर ने दशरथ-सुत से अलग राम की रचना की, लेकिन डॉ. धर्मवीर के मतानुसार ब्राह्मणवाद ने उसे अपने भीतर ही जज्ब कर लिया। लोगों के हृदय में तुलसी के राम की प्रतिष्ठा ही बनी हुई है। तुलसी के प्रति दलितों के आक्रोश को वाजिब कहा जा सकता है, लेकिन वे हिंदू धर्म की उदारवादी धारा के अंतर्गत ही आएँगे। यह अकारण नहीं हो सकता कि ‘मानस’ में सीता-त्याग और शंबूक-वध के किस्सों को जगह नहीं दी गई है।
तुलसी ने रामचरित के माध्यम से जीवन के कुछ ऐसे व्यावहारिक आदर्शों की प्रतिष्ठा भी की जिनके चलते अनमानस में उनके राम को इस कदर लोकप्रियता हासिल हुई है। डॉ. लोहिया ने यह माना है कि ‘शूद्र और पिछड़े वर्गों के मामले में (तुलसी कृत) रामायण में काफी अविवेक है।’ लेकिन निषाद-प्रसंग को उन्होंने ‘जाति-प्रथा के इस बीहड़ और सड़े जंगल में एक छोटी-सी चमकती पगडंडी’ स्वीकार किया है।
‘भरत अवधि सनेह ममता की, जदपि रामु सीम समता की’ चौपाई को उद्धृत कर लोहिया ने लिखा है: ‘राम समता की सीमा हैं।, उनसे बढ़ कर समता और कहीं नहीं है। इस समता का ज्यादा निर्देश मन की समता की ओर है, जैसे ठंडे और गरम, अथवा हर्ष और विषाद अथवा जय और पराजय की दोनों स्थितियों में मन की समान भावना। मन की ऐसी भावना अगर सच है तो बाहरी जगत के प्राणियों के लिए भी छलकेगी। जिस तरह राम की समता छलकती है, उसी तरह भरत का स्नेह भी छलकता है।
दोनों निषाद को गले लगाते हैं। यह सही है कि अब पालागी और गलमिलौवल को साथ-साथ चलाना प्रवंचना होगी। पालागी खतम हो और गलमिलौवल रहे।’ लोहिया ने ‘द्विज और विप्र को हर मौके पर इतना ऊँचा’ उठाने तथा ‘शूद्र और वनवासी को बहुत नीचे’ गिराने के लिए तुलसी के समय को दोष दिया है। लोहिया यह तर्क देते वक्त भूल जाते हैं कि राम के एक अन्य दलित भक्त कबीर क्रांतिकारी रूप में सामने आते हैं। जाहिर है, तुलसी की सीमा समय के साथ उनके वर्ण और जाति की सीमा भी है।
जो भी हो, तुलसी के राम परमब्रह्म, होने के साथ मर्यादा पुरुषोत्तम हैं, उदात्त हैं, उदार हैं, गरीब निवाज हैं, निर्बल के बल हैं, समता की सीमा हैं। और सीता के साथ जगत में व्याप्त हैं। उन्हें राजनीति और राजमद नहीं व्यापते। रामलीला के एक प्रसंग में जामवंत शरणागत विभीषण को लंका का राज देने का वादा करने पर राम से कहते हैं कि अगर कल को रावण भी शरण में आ जाए तो आप उसे कहाँ का राज देंगे? राम कहते हैं अयोध्या का।
यह पूछने पर कि फिर आप कहाँ का राज करेंगे, राम जवाब देते हैं कि वे वन का राज करेंगे। तुलसी के राम शत्रुहंता नहीं हैं। रावण से उन्हें युद्ध करना पड़ता है, लेकिन युद्ध के पहले वे रावण को अपनी गलती सुधारने का पूरा मौका देते हैं। युद्ध के बीच में भी रावण को पूरा मौका दिया जाता है कि वह सीता को लौटा दे और अपने कुल सहित लंका का राज करे। जैसा कि ऊपर कहा गया है, तुलसी ने राम द्वारा शंबूक की हत्या और सीता के त्याग की घटनाओं को ‘मानस’ में जगह नहीं दी है।
लिहाजा, तुलसी के राम अगर जन-जन की आस्था के प्रतीक बने हैं, जिसका कि संघ संप्रदाय ने राममंदिर आंदोलन में इस्तेमाल किया है, तो उसके पीछे राम का देवत्व उतना कारण नहीं है, जितना उनका मर्यादित और मानवीय चरित्र।
राम के चरित्र के ये गुण ही उन्हें समाज में लोगों के बीच परस्पर आदर और अभिवादन प्रकट करने का सर्वव्यापी माध्यम बनाते हैं। संबोधन और भी हैं, लेकिन वे संप्रदाय या धर्म-विशेष के लोगों के बीच ही होते हैं, जबकि लोग अपने संप्रदाय या धर्म के परे जाकर एक-दूसरे से ‘राम-राम’ करते हैं। यह ‘राम-राम’ गरीब और अमीर के बीच भी होती है।