
आर के तिवारी
नई दिल्ली। कभी कभी व्यक्ति इतना बड़ा हो जाता है कि उसके सामने पद बौना हो जाता है। कुछ इसी तरह की शख्सियत थे प्रणब दा। उनके निधन पर उनकी शख्सियत को याद किए बिना कैसे रहा जा सकता है? उन्होंने एक बार अपने खास अंदाज में मुस्कुराते हुए कहा था कि प्रधानमंत्री तो आते जाते रहेंगे, लेकिन मैं हमेशा पीएम (प्रणब मुखर्जी) ही रहूंगा।
प्रणब दा की प्रासंगिकता
अब जब श्रमिक अधिकारों को समाप्त किया जा रहा है, तो ऐसे समय में प्रणब दा की प्रासंगिकता को सिर्फ याद किया जा सकता है। क्योंकि उनकी प्रमुख विशेषता आम आदमी का साथ निभाने की रही है। इसीलिए उनका कद पद से कई गुना बड़ा हो गया था। हमारे न्यूज पोर्टल की ओर से प्रणब दा को भावपूर्ण श्रद्धांजलि।
दरअसल, कई बार ऐसे अवसर आए, जब प्रणब मुखर्जी को प्रधानमंत्री बनाया जा सकता था, लेकिन सत्ता की सियासत हावी होती गई और इस दौड़ में वह पीछे ही कर दिए गए। उन्हें जब राष्ट्रपति बनाया गया, तब कहा जाने लगा था कि प्रणब मुखर्जी को सत्ता की सियासत ने राजनीति से बाहर कर दिया है। वास्तव में, राष्ट्रपति पद पर आसीन व्यक्ति किसी पार्टी विशेष का नहीं रह जाता।
कांग्रेस के लिए संकटमोचक
प्रणब मुखर्जी भले ही देश के प्रधानमंत्री न बन पाए हों, पर विभिन्न पदों पर रहते हुए उन्होंने सरकार और कांग्रेस के लिए संकटमोचक की भूमिका निभाई। राष्ट्रपति के तौर पर भी उन्होंने अपनी विचारधारा को कभी संविधान की मर्यादा के आड़े नहीं आने दिया।
पचास साल के अपने राजनीतिक जीवन में प्रणब मुखर्जी ने प्रधानमंत्री को छोड़कर हर महत्वपूर्ण पद पर काम किया था। यूपीए-एक और दो में उनकी संकट मोचक की भूमिका ने सरकार की स्थिरता में बेहद अहम किरदार निभाया। खुद पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा था कि सरकार को जब भी किसी जटिल मुद्दे का हल निकालना होता था, तो मंत्री समूह का गठन किया जाता और अधिकतर जीओएम के अध्यक्ष प्रणब मुखर्जी होते थे।
वित्त मंत्री के तौर पर प्रोत्साहन पैकेज
यूपीए सरकार में प्रणब मुखर्जी ने रक्षा, वित्त और विदेश मंत्रालय की जिम्मेदारी संभाली। इसके साथ वह सौ से अधिक जीओएम के अध्यक्ष रहे। 2008 में आर्थिक मंदी के दौर में वित्त मंत्री के तौर पर प्रोत्साहन पैकेज ने आर्थिक स्थिति को संभाले रखा। अमेरिका के साथ परमाणु समझौते में भी उन्होंने अहम भूमिका निभाई। वर्ष 2012 में राष्ट्रपति बनने से पहले तक प्रणब मुखर्जी सरकार के हर अहम निर्णय में शामिल रहे।
वर्ष 2007 में भी पार्टी के अंदर उन्हें राष्ट्रपति बनाने पर चर्चा हुई थी, पर उस वक्त सरकार में कांग्रेस की स्थिति बहुत मजबूत नहीं थी। इसलिए उन्हें सरकार में रखना पार्टी के लिए महत्वपूर्ण था। राजनीति में प्रणब मुखर्जी प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह से वरिष्ठ थे। इसलिए दोनों के बीच रिश्ते को बेहद जटिल माना जाता रहा है।
राजनीतिक समझबूझ और बुद्धिमता
अपनी राजनीतिक समझबूझ और बुद्धिमता की बदौलत उन्होंने इसको कभी आड़े नहीं आने दिया। सरकार में वह नंबर दो की हैसियत में रहे। तब प्रधानमंत्री भी उन्हें प्रणब जी कहकर पुकारते थे और प्रणब मुखर्जी प्रधानमंत्री को डॉ. सिंह कहकर संबोधित करते थे। प्रधानमंत्री उन्हें पूरा सम्मान देते थे। कांग्रेस के अंदर भी प्रणब मुखर्जी की अहमयित का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि सीडब्लूसी का हर प्रस्ताव उनकी नजर से गुजरता था।
पार्टी और विपक्ष के लोग भी उनकी यादाश्त और ड्राफ्ट के कायल थे। पार्टी के नेता अक्सर यह कहते थे कि प्रणब दा वाक्य में कोमा आना चाहिए या फुल स्टॉप इस पर एक घंटे तक बहस कर सकते हैं। वे पचास साल पुरानी बात भी तिथि के साथ याद रखते थे। इसलिए लोग उन्हें राजनीति का इंसाइक्लोपीडिया मानते थे।
सक्रिय राष्ट्रपति की भूमिका निभाई
राष्ट्रपति के तौर पर प्रणब मुखर्जी ने एक सक्रिय राष्ट्रपति की भूमिका निभाई। राष्ट्रपति भवन को आम आदमी के लिए खोलने के साथ उन्होंने खुद को सिर्फ समारोहों तक सीमित नहीं रखा। उस वक्त के मुद्दों पर उन्होंने पूरी बेबाकी के साथ अपनी बात रखी। जून 2018 में आरएसएस के एक कार्यक्रम को संबोधित करने को लेकर पार्टी के अंदर कुछ आवाज उठी। इसके बाद 2019 में उन्हें भारत रत्न से सम्मानित किया गया।