Journalism and Economic Security: स्वागत है आपका। आप पढ़ना शुरू कर चुके हैं इंफोपोस्ट की खास आलेखमाला सूचना के सिपाही। इसमें हम पत्रकारिता के महत्व और उसके जोखिमों पर चर्चा करते हैं। आज हम पत्रकारों के परिवार की आर्थिक सुरक्षा की बात करेंगे।
Journalism and Economic Security: पत्रकार को आर्थिक सुरक्षा क्यों जरूरी ?
श्रीकांत सिंह
नई दिल्ली। Journalism and Economic Security: सरकार से मांग की जा रही है कि मशहूर पत्रकार रोहित सरदाना के परिजनों को पांच करोड़ रुपये की आर्थिक सहायता दी जाए। सरदाना की असामयिक मौत पर इस मांग को हवा दी जा रही है।
इसी के बहाने देश के उन तमाम पत्रकारों के परिवार को आर्थिक सुरक्षा से लैस किए जाने की बात की जा रही है, जिनकी मौत पर कोई चर्चा तक नहीं होती। कोरोना महामारी की दूसरी लहर के दौरान अकेले लखनऊ में सोलह पत्रकारों की मौत हो चुकी है, जिससे उनके परिजन असहाय हो गए हैं। यही नहीं, एक पत्रकार की तो लावारिस में अंत्येष्टि कर दी गई।
दरअसल, वह हर व्यक्ति पत्रकार है जो सही सूचना आप तक पहुंचाता है। इस बात की तह में जाने की जरूरत नहीं है कि कौन किस स्तर का पत्रकार है। क्योंकि पत्रकारिता के तमाम कोर्स करके पत्रकार बन चुके लोग भी सूचना का धर्म ठीक से नहीं निभा पा रहे हैं।
पत्रकारिता के मानदंड
वे भी समाज में जहर घोलने के लिए किसी न किसी के इशारे पर तैयार रहते हैं। इसलिए पत्रकारिता के मानदंड को नए सिरे से परिभाषित किए जाने की जरूरत है। खैर। पत्रकार कैसा भी हो, वह सूचना का वाहक तो होता ही है। और सूचना की क्या ताकत होती है, उसी को जानते हैं।
ऐसा कहा जाता है कि जापान के हिरोशिमा और नागासाकी शहरों पर जब अमेरिका ने परमाणु बम से हमला किया था तो उस समय जापान टूट गया था और उसने आसानी से अमेरिका के सामने घुटने टेक दिए थे। लेकिन यह भी कहा जाता है कि यदि जापान को इस बात की सूचना होती कि अमेरिका के पास अब और परमाणु बम नहीं हैं, तो वह अमेरिका से नहीं हारता।
और आज तो सूचना का युग है। ऐसे में पत्रकारिता और पत्रकार का महत्व और भी बढ़ जाता है। क्योंकि पत्रकार अपनी सूचनाओं से आपको जगाता है, सचेत करता है और आपके जीवन को आसान बनाने की कोशिश करता है। सही मायने में वही देश का असली चौकीदार है!
सरकार की दोषपूर्ण नीतियां
लेकिन सरकार की दोषपूर्ण नीतियों की वजह से पत्रकारिता दम तोड़ रही है। जैसे जैसे पत्रकारिता के संसाधनों में इलाफा हो रहा है, पत्रकारिता घटती जा रही है। फिर भी पत्रकारिता का हमारे जीवन में स्थान कम नहीं हो जाता। आज हम अपने जीवन के छोटे छोटे कार्यों को अंजाम तक पहुंचाने के लिए गूगल की मदद लेते हैं।
लेकिन गूगल के पास अपनी कोई सूचना की प्रापर्टी नहीं है। वह तो एक प्लेटफार्म है, जहां पर सूचनाएं अपलोड की जाती हैं और वहीं से छन कर हम तक पहुंचती हैं। सूचनाएं और खबरें जुटाते हैं पत्रकार। इसलिए पत्रकार के बिना हमारा जीवन सुचारु रूप से चल ही नहीं सकता।
फिर भी हमारे देश में पत्रकारों की जिस तरह से बेकद्री हो रही है, वह देश के लिए ही घातक है। यही हाल रहा तो हमारी नई पीढ़ी पत्रकारिता से पूरी तरह किनारा कर लेगी।
एक लाइन का टिकर भी नहीं
और तो और। जिस आजतक न्यूज चैनल के मशहूर पत्रकार रोहित सरदाना की मौत ने पूरे देश को झकझोरा है, उसी आजतक पर लोग रोहित सरदाना की मौत की पुष्टि के लिए गए तो चैनल पर पांच राज्यों में हुए चुनाव के एक्जिट पोल दिखाए जा रहे थे। एक लाइन का टिकर भी न्यूज चैनल पर नहीं चल रहा था।
देश के सबसे तेज चैनल से ऐसी उम्मीद कोई नहीं कर सकता था। खास कर उस चैनल से, जो हर खबर से खबरदार होने का दावा करता हो और घंटों अपनी ही खबर से बेखर हो। हालांकि आजतक के बचाव में तमाम तर्क दिए जा रहे हैं, लेकिन सूचना के साथ अन्याय को आपराधिक लापरवाही ही कहा जाएगा।
लौटते हैं, अपने विषय पर। पत्रकारों के लिए आर्थिक सुरक्षा की व्यवस्था क्यों होनी चाहिए। इसलिए कि पत्रकार का कार्य अत्यंत जोखिमों से घिरा होता है। ऐसी घटनाओं की कमी नहीं है, जिसमें पत्रकार जनहित में स्टोरी करता है, तो उससे जिनके व्यक्तिगत हित प्रभावित होते हैं, वे बेखौफ होकर पत्रकार की हत्या तक करा देते हैं।
इतना जोखिम शायद ही किसी पेशे में
इतना जोखिम शायद ही किसी पेशे में हो। जोखिम के जो दूसरे पेशे हैं, उनमें कम से कम वेतनमान की बेहतर और सुनिश्चित व्यवस्था होती है। लेकिन पत्रकारिता के क्षेत्र में वेतनमान की विसंगतियां जग जाहिर हैं। कुछ बड़े पत्रकारों को छोड़ दें तो अधिकांश संस्थानों में पत्रकारों के लिए साधारण जीवन के संसाधान जुटा पाना एक बड़ी चुनौती है।
हालांकि हमारे संविधान में श्रमजीवी पत्रकारों के लिए वेतनमान की पूरी व्यवस्था है। लेकिन मुनाफाखोर मीडिया घरानों ने किसी भी वेजबोर्ड को लागू नहीं किया। नौकरी की मजबूरी में कभी भी किसी पत्रकार में इतना नैतिक साहस नहीं आ पाया कि वह वेजबोर्ड की मांग कर पाता।
मीडिया घराने पालेकर, बछावत, मणिसाना आदि वेजबोर्ड का पैसा डकारते रहे और हमारी सरकारें तमाशबीन बनी रहीं। मजीठिया वेजबोर्ड का मामला इसलिए सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा, क्योंकि इस बार बेजबोर्ड को समाप्त कराने के लिए मीडिया घराने ही सुप्रीम कोर्ट चले गए थे।
मजीठिया वेजबोर्ड पर अस्पष्ट आदेश
सुप्रीम कोर्ट ने भी मजीठिया वेजबोर्ड पर इतना अस्पष्ट आदेश सुनाया कि आज भी तमाम पत्रकार नौकरी गंवा कर श्रम अदालतों में धक्के खाने को मजबूर हैं।
पत्रकारों की आर्थिक सुरक्षा को लेकर हमारी सरकारें जिस कदर उदासीन हैं, उससे तो यही लगता है कि वे पत्रकारों को अपना दुश्मन ही समझती हैं। जबकि ऐसा नहीं है। तभी तो कहा गया है कि निंदक नियरे राखिए, आंगन कुटी छवाय। आज की सरकारें अपनी निंदा पसंद नहीं करतीं। तभी तो पत्रकार अब इमेज बिल्डर बन कर रह गए हैं।
यह भी सच है कि बनावटी इमेज के बल पर काम कर रही सरकारों का बुरा हश्र होता है। क्योंकि इमेज चमकाने वाले पत्रकार सरकार को हमेशा गफलत में रहने के अभ्यासी बना देते हैं। पत्रकारिता के क्षरण से सबसे ज्यादा नुकसान समाज को होता है।
अगर कोरोना की दूसरी लहर पर ठीक से पत्रकारिता हुई होती और उसके जोखिमों के साथ सरकार की तैयारियों पर फोकस करती खबरें सामने लाई जातीं तो सरकार दबाव में आती और आज का दिन न देखना होता। और हम रोहित सरदाना के असामयिक निधन पर चर्चा न कर रहे होते।
निष्कर्ष
Journalism and Economic Security: दरअसल, मुनाफाखोर मीडिया घराने कभी भी पत्रकारिता और पत्रकार को महत्व नहीं देंगे। और इमेज की दीवानी सरकारें तो खास तरह की पत्रकारिता को हवा दे रही हैं। ऐसे में समाज के कुछ सक्षम लोगों को आगे आना होगा और एकजुटता के साथ पत्रकारिता को बचाना होगा। हमारा आलेख आपको कैसा लगा? कमेंट करके जरूर बताएं, ताकि हम आलेखमाला की दूसरी कड़ी उसी के अनुरूप सामने ला सकें!