
भगवान भोले नाथ की नगरी काशी की अपनी विशेषता रही है। धर्म के मामले में यह नगरी जितना विख्यात है, उतना ही साहित्य और संस्कृति के मामले में भी। इस महानगरी ने एक लंबा इतिहास रचा है, जो भारतीय जीवन पद्धति की एक धरोहर है। यही वजह है कि यहां देश विदेश के लोगों का आना जाना लगा रहता है।
भक्ति काल से लेकर आधुनिक काल के हर दौर में हिंदी साहित्य का गढ़ काशी कबीरदास से शुरू होकर आधुनिक काल के जयशंकर प्रसाद तक का इतिहास समेटे है। हिंदी साहित्य के निर्माण, विकास और नव सृजन में काशी एक महत्वपूर्ण केंद्र रही है।
साहित्यकार व गीतकार सुरेंद्र वाजपेयी के अनुसार, नागरी प्रचारिणी सभा की स्थापना के साथ ही काशी में हिंदी आंदोलन शुरू हुआ। क्वींस कॉलेज में 1893 में नौवीं कक्षा के तीन छात्रों बाबू श्यामसुंदर दास, पं. रामनारायण मिश्र और शिवकुमार सिंह ने छात्रावास के कमरे में बैठकर नागरी प्रचारिणी सभा की स्थापना की थी।
संस्था की स्थापना का उद्देश्य हिंदी और देवनागरी लिपि का राष्ट्रव्यापी प्रचार एवं प्रसार करना था। उस समय न्यायालयों में या सरकारी कामों में हिंदी का प्रयोग नहीं हो सकता था। हिंदी की शिक्षा वैकल्पिक रूप से मिडिल पाठशालाओं तक ही सीमित थी।
हिंदी में श्रेष्ठ ग्रंथों का अभाव था। प्रेमसागर, बिहारी की सतसई, तुलसीकृत रामायण यानी श्रीरामचरित मानस और जायसी के पद्मावत को ही ग्रंथ माना जाता था। भारतेंदु और उनकी मित्र मंडली का साहित्य केवल साहित्यकारों के अध्ययन और चिंतन तक सीमित था।
साहित्यकार पं. जितेंद्रनाथ मिश्र के अनुसार, हिंदी प्रदेशों में देवनागरी लिपि में हिंदी के प्रयोग की अनुमति के लिए खूब आंदोलन हुए। नागरी प्रचारिणी सभा ने सरकार को नागरी लिपि की वैज्ञानिकता के संबंध में मेमोरैंडम प्रस्तुत किया जो देवनागरी लिपि को संसार की सबसे अधिक वैज्ञानिक लिपि सिद्ध करने वाला पहला विस्तृत, प्रमाणिक और सर्वमान्य दस्तावेज है।
इस आंदोलन में सभा के कई कार्यकर्ता गिरफ्तार किए गए और यह माना जाता है कि यह हिंदी के लिए यह पहला सत्याग्रह था। नागरी प्रचारिणी सभा के दस्तावेजों के अनुसार, 1905 में काशी में कांग्रेस अधिवेशन के अवसर पर भाषा सम्मेलन का आयोजन हुआ।
नागरी प्रचारिणी सभा के प्रांगण में लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने कहा कि हिंदी ही भारत की राष्ट्रभाषा हो सकती है। देवनागरी लिपि वैकल्पिक रूप से भारत की सभी भाषाओं के लिए प्रयुक्त की जानी चाहिए। सभा के पास हिंदी हस्तलेखों का इतना विशाल संग्रह है जितना एक स्थान पर संसार के किसी पुस्तकालय में नहीं होगा।
इसमें 25 हजार हस्तलेख संस्कृत के भी हैं। इनके अध्ययन और अध्यापन के लिए शोध छात्र और विद्वान सभा में आते हैं। हिंदी की सबसे प्राचीन शोध पत्रिका नागरी प्रचारिणी पत्रिका है। यह 1897 से प्रकाशित हो रही है।
पत्रिका के संपादक मंडल में बाबू श्याम सुंदर दास, गौरीशंकर हीराचंद ओझा, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, चंद्रधर शर्मा गुलेरी, जयचंद विद्यालंकार, डॉ. संपूर्णानंद, आचार्य नरेंद्र देव, हजारी प्रसाद द्विवेदी जैसे विद्वान रहे हैं। महामना पंडित मदन मोहन मालवीय ने यहीं हिंदी साहित्य सम्मेलन की स्थापना की थी।
दरअसल, काशी का वातावरण ही ऐसा रहा है कि वहां विद्वान, कलाकार और साहित्यकार पैदा होते रहे हैं। इन्हीं साहित्यकारों ने हिंदी को समृद्ध किया है। कंप्यूटर में हिंदी यूनीकोड आ जाने से आज हिंदी पूरी दुनिया में राज कर रही है।