Media personnel at risk: रोहित सरदाना और अरुण पांडेय जी के तुरंत बाद कोरोना से जब शेष नारायण सिंह जी के निधन की खबर मीडिया के क्षेत्र के किसी भी व्यक्ति को मिलेगी तो उसे समझने में देर नहीं लगेगी कि आज के हालात में मीडिया में काम करने वाले लोगों की जिंदगी कहां झूल रही है।
Media personnel at risk: मीडियाकर्मी के निधन की खबर विडंबना
चरण सिंह राजपूत
Media personnel at risk: कोरोना के कहर में रोज किसी न किसी माध्यम से किसी मीडियाकर्मी के निधन की खबर मिलना मीडिया जगत की विडंबना की कहानी बयां कर रहा है। यह समय दूसरे क्षेत्रों से तुलना करने का नहीं है पर कोरोना के इस कहर में सबसे अधिक आफत मीडियाकर्मियों पर आ पड़ रही है।
ऐसे में प्रश्न उठता है कि क्या कोरोना काल में मीडिया अपनी जिम्मेदारी व जवाबदेही सही से निभा पाया। याद कीजिये पिछला साल। पूरे मीडिया ने ऐसा माहौल बना दिया था कि जैसे भारत में कोरोना तब्लीगी जमात लाया हो। वह बात दूसरी है कि तब्लीगी जमात के नाम पर देश और विदेश के कितने मुस्लिम लोग परेशान कर दिये गये पर तब्लीगी जमात का भारत प्रमुख मौलाना साद आज तक गिरफ्तार नहीं हो सका है।
क्या मोदी ने भारत को बचा लिया?
मोदी सरकार और भाजपा शासित प्रदेश सरकारों के लिए यह माहौल बनाने में मीडिया का बहुत बड़ा योगदान रहा था। इसी मीडिया ने चिल्लाना शुरू कर दिया था कि मोदी ने भारत को बचा लिया। देश में कोराना के नाम पर थाली-ताली, मोबाइल की टार्च पता नहीं क्या-क्या नौटंकी हुई और मीडिया मोदी सरकार का प्रवक्ता बना रहा। क्या यही मीडिया का काम है?
गत दशक से देश में मीडिया के क्षेत्र में ऐसा माहौल बनाया हुआ है कि विभिन्न तरह के तनावों के बीच काम कर रहे मीडियाकर्मी विभिन्न गंभीर बीमारियों से ग्रसित हो चुके हैं। सामान्य स्थिति में भी कई मीडियाकर्मी बेवक्त दुनिया छोड़ गये। इसके लिए मैनेजरों के रूप में विभिन्न समाचार पत्रों में स्थापित संपादकों का बड़ा योगदान रहा है। इन बेगैरत लोगों ने मीडियाकर्मियों पर जिम्मेदारी तो बड़ी डाल रखी है पर संसाधनों व सुविधाओं के नाम पर ठेंगा ही बचा है।
मीडिया प्रबंधनों का उदासीन रवैया
ऊपर से मीडिया प्रबंधनों का उदासीन रवैया। यदि आज सर्वे करें तो सबसे अधिक दयनीय हालत मीडियाकर्मियों की है। प्रबंधन के साथ ही खुद मीडियाकर्मी भी इसके लिए काफी हद तक जिम्मेदार हैं। गत वर्ष मैंने अपने अनुज राजीव राजपूत को खोया है। वह अमर उजाला में कम्प्यूटर सेक्शन में कार्यरत था।
16 साल से लगातार रात की ड्यूटी करते-करते वह अंदर से बिल्कुल खत्म हो चुका था। मीडिया की तनावभरी जिंदगी ही उसे ले डूबी। प्रबंधन का रवैया ऐसा कि उसके निधन के बाद अमर उजाला के प्रबंधन की ओर एक फोन तक नहीं आया। यह हाल है मीडिया प्रबंधनों का।
ऐसे में मीडियाकर्मियों की मनोस्थिति क्या होगी, बताने की जरूरत नहीं है। इन परिस्थितियों में मीडियाकर्मी कैसे काम कर रहे हैं या फिर उनकी जिंदगी कितनी सुरक्षित है। इसका अंदाजा खुद ही लगाया जा सकता है या फिर जो लोग मीडिया के क्षेत्र में हैं वे अच्छी तरह से समझ सकते हैं। हां, वह बात दूसरी है कि आज की तारीख में सच कहने का दम बहुत कम मीडियाकर्मियों में बचा है, जिसका खामियाजा न केवल देश व समाज बल्कि वे खुद ही भुगत रहे हैं।
गैर जिम्मेदाराना रवैये का खामियाजा
राष्ट्रीय सहारा और उसके बाद स्वतंत्र पत्रकारिता का मेरा अनुभव यह रहा है कि आज मीडिया अपने गैर जिम्मेदाराना रवैये का खामियाजा भुगत रहा है। संवेदनशीलता के अभाव और स्वार्थीपन ने मीडियाकर्मियों को कहीं का नहीं छोड़ा है। मीडिया में कर्मचारियों के ट्रांसफर तो ऐसे होते हैं जैसे वे कोई आएएस और पीसीएस अधिकारी हों।
अब तो श्रम कानून में संशोधन के बाद मीडिया क्षेत्र की हालत और दयनीय हो गई और होने वाली है। कहना गलत न होगा कि यदि यह कोरोना का कहर लंबा चला तो सबसे अधिक क्षति मीडिया क्षेत्र की होने की आशंका है।
मीडिया मेरे लिए ऐसा क्षेत्र है, जिसकी व्यवस्था पर गुस्सा भी आता है, दया भी आती है। जवाबदेही और जिम्मेदारियों से बचने वाले मीडियाकर्मियों की मजबूरी बखूबी समझ में आती है। इस पेशे और इसमें काम करने वाले लोगों ने मेरे साथ कुछ भी किया हो पर मेरा लगाव इस पेशे और इममें काम करने वाले लोगों से है।
सत्ता और प्रभावशाली लोगों की चाटुकारिता
इसलिए मीडिया में व्यवस्था पर लिखने से मैं बाज नहीं आ सकता हूं। इसमें दो राय नहीं कि भले ही देश में मीडिया का बड़ा तबका सत्ता और प्रभावशाली लोगों की चाटुकारिता में लगा हो पर रवीश कुमार, प्रसून वाजपेयी और अजीत अंजुम जैसे काफी पत्रकार हैं जो विषम परिस्थितियों में अपनी कलम से समझौता नहीं कर रहे हैं। जन सरोकार की पत्रकारिता कर रहे हैं।
क्या मोदी सरकार के लोगों के स्वास्थ्य के प्रति गैर जिम्मेदाराना रवैये पर मीडिया ने परदा नहीं डाला? क्या मोदी सरकार के हर पाप में मीडिया ने साथ नहीं दिया ? क्या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह के इतने निरंकुश होने के पीछे मीडिया ढाल की तरह नहीं खड़ा रहा।
मजीठिया वेज बोर्ड का मुद्दा
Media personnel at risk: क्या आज भी मीडिया कोरोना कहर के लिए मोदी सरकार को जिम्मेदार ठहराने से नहीं बच रहा है। क्या मीडिया मीडियाकर्मियों के बेवक्त निकल जाने को मुद्दा बना पा रहा है? क्या मीडिया में स्थापित लोग मीडिया में होने वाले अन्याय के खिलाफ खड़े हो पाये हैं। क्या मीडिया में जो मीडियाकर्मी मीडिया में व्याप्त भ्रष्टाचार के खिलाफ सीना ताने खड़े हैं मजीठिया वेज बोर्ड का मुद्दा उठा रहे हैं उनका साथ यह मीडिया दे रहा है।
जो मीडियाकर्मी अपने साथ होने वाले अन्याय के खिलाफ ही खड़े नहीं हो पाये, उनके पक्ष में कौन खड़ा होगा? यदि अब भी मीडियाकर्मी अपने वजूद को न पहचाने और अपनी जिम्मेदारियों व जवाबदेही के प्रति ईमानदारी न बरते तो इसका खामियाजा न जाने कितने और ईमानदार पत्रकारों को भुगतना पड़ेगा। हो सकता है सत्ता और प्रभावशाली लोगों के प्रवक्ता बने हुए पत्रकार भी देर-सबेर इस कुव्यवस्था की चपेट में आ जाएं।