श्रीकांत सिंह
हिंदू संस्कृति मिथकाें में जीना सिखाती है, लेकिन भारतीय संस्कृति के पाेषक कुछ लेखक अपने पाठकाें काे मिथकाें से बाहर निकलने की प्रेरणा देते हैं। वीरेंद्र सारंग उन्हीं लेखकाें में हैं। उन्होंने जिस कुशलता से लाेक भाषा के शब्दाें का प्रयाेग किया है, वह अद्भुत है। प्रमुख हिंदू देवता कृष्ण के जननायक स्वरूप काे समझना चाहते हैं ताे वीरेंद्र सारंग का उपन्यास जननायक कृष्ण आपकाे जरूर पढ़ना चाहिए। इसमें भगवान कृष्ण आपकाे भगवत्ता से बाहर एक असाधारण व्यक्तित्व वाला मजदूर नेता नजर आएंगे, किसान नजर आएंगे, राजनेता नजर आएंगे, एक मनुष्य नजर आएंगे जाे अपनी असाधारण युक्तियाें से जीवन काे आसान बनाता चलता है।
जननायक कृष्ण के मजदूर नेता का स्वरूप उपन्यास की इन पंक्तियाें में साफ साफ झलकता है। “मैं भगवान नहीं हूं। भगवान का प्रचार बहुत हाे रहा है। मुझे भगवान मानकर लाेग अनैतिक कदम मेरी आड़ में उठा रहे हैं। …समाज में दाे ही तरह के लाेग हैं, एक स्वामी ताे दूसरा श्रमिक। स्वामी की क्या आवश्यकता? श्रमिक आवश्यक है। स्वामी श्रमिक का शाेषण करेगा ताे श्रमिक एकजुट हाेकर खड़ा हाे जाएगा विराेध में।”
दरअसल, जननायक कृष्ण में महाभारत काल व कृष्ण से जुड़े मिथकाें को एक नवीन दृष्टि मिली है, जिसका असली सार कृष्ण के उस जननायक रूप का है जिसे बाकायदा राजनीति के तहत नंद व वसुदेव प्रशंसकाें ने उनके बचपन से ही मिथकीय रूप दिया ताकि कंस के खिलाफ जनता काे एकजुट किया जा सके। वास्तव में, कंस असुर है जाे देवता व आर्य के चंगुल में फंस कर क्रूर व ताानाशाह हाे गया है। उग्रसेन नाकाबिल व कमजाेर राजा हैं जिन्हें हटा कर कंस राजा बनता है ताकि अपनी अनार्य संस्कृति की रक्षा कर सके, जाे मूलतः गाेपालक व कृषक जाति है। देवता आर्य संस्कृति काे बढ़ावा देना चाहते हैं जो मूलतः उपभाेग की संस्कृति है। कृष्ण इन पचड़ाें में न पड़ कर अहिंसक कृषक समाज का विकास करते हुए आर्य व अनार्य संस्कृतियाें में सामंजस्य पैदा करना चाहते हैं।
यह अलग बात है कि कृष्ण काे आजीवन हिंसा की परिस्थितियाें का सामना करना पड़ता है। न चाहते हुए भी उन्हें महाभारत जैसे महायुद्ध का सूत्रधार बनना पड़ता है। फिर भी वह आजीवन हिंसा रोकने का ही युद्ध लड़ते रहते हैं। महाभारत युद्ध का उन्हें सबसे ज्यादा पछतावा होता है। युद्ध के धर्म व धर्म के युद्ध का अंतहीन भ्रम भी जननायक कृष्ण ही दूर कर पाते हैं फिर भी उन्हें किसी के भी साथ हुए अन्याय का पछतावा है। कृष्ण का व्यक्तित्व एक अच्छे भगवान नहीं, एक अच्छे इंसान का प्रतिनिधित्व करता है। इसीलिए वह हैं जननायक कृष्ण।
कृष्ण को जननायक के रूप में पेश किए जाने के मामले में लेखक की क्या भूमिका है? दरअसल, लेखक उस जादूगर की तरह है, जो तमाशायी को जादू के भेद बता देता है तो जादू नहीं रह जाता जादू। हमारे मिथक जादू व चमत्कारों से भरे पड़े हैं। लेखक कृष्ण को मिथकों व चमत्कारों से बाहर निकाल कर जननायक बना देता है। एक बात समझ में नहीं आती कि लेखक ने दुर्योधन को सुयोधन क्यों लिखा है?
जननायक कृष्ण उपन्यास समाज को समझने की एक दृष्टि देता है। लोक भाषा से जोड़ता है। कृष्ण काल को आधुनिक काल के परिप्रेक्ष्य में समझने का माहौल बनाता है। सबसे बड़ी बात यह कि भरपूर मनोरंजन करते हुए उस दुनिया में ले जाता है, जहां आप अपने अतीत में झांक सकते हैं।
पुस्तक−जननायक कृष्ण
लेखक−वीरेंद्र सारंग
प्रकाशक−राजकमल प्रकाशन प्रा. लि.
1−बी, नेताजी सुभाष मार्ग, दरियागंज, नयी दिल्ली−110002
मूल्य−299 रुपये
पृष्ठ−303