पंजाब सरकार की घोषणा के अनुसार, मूंग की फसल को भी अब एमएसपी पर खरीदा जाएगा। जाहिर है कि किसान मूंग की खेती की ओर आकर्षित होंगे। पिछले दिनों हमने मूंग की खेती के बारे में जानकारी दी थी। आज मूंग की फसल के लिए हानिकारक कीट और रोग की चर्चा करेंगे।
Moong Crop: हानिकारक कीट, रोग और उनकी रोकथाम
आईपी डेस्क
Moong Crop: मूंग की फसल में प्रमुख रूप से फली भ्रंग, हरा फुदका, माहू और कम्बल कीट का प्रकोप होता है। पत्ती भक्षक कीटों को नष्ट करने के लिए क्विनालफास की 1.5 लीटर या मोनोक्रोटोफॉस की 750 मिलीलीटर हरा फुदका, माहू और सफेद मक्खी जैसे-रस सूचक कीटों के लिए डायमिथोएट 1000 मिलीलीटर प्रति 600 लीटर पानी या इमिडाक्लोप्रिड 17.8 एस.एल. प्रति 600 लीटर पानी में 125 मिलीलीटर दवा के हिसाब से प्रति हेक्टेयर छिड़काव करना चाहिए।
इसी प्रकार रोग नियंत्रण के लिए मूंग में अधिकतर पीत रोग, पर्णदाग और भभूतिया रोग लगते हैं। इन रोगों की रोकथाम के लिए रोग निरोधक किस्में हम-1, पंत मूंग-1, पंत मूंग-2, टी.जे.एम-3, जे.एम.-721 आदि का उपयोग करना चाहिए।
सफेद मक्खी से फैलता है पीत रोग
पीत रोग सफेद मक्खी से फैलता है। इसका नियंत्रण करने के लिए मेटासिस्टॉक्स 25 ईसी 750 से 1000 मिलीलीटर लेकर 600 लीटर पानी में घोल दिया जाता है। प्रति हेक्टेयर छिड़काव दो बार 15 दिन के अंतराल पर करें।
फफूंद जनित पर्णदाग (अल्टरनेरिया/ सरकोस्पोरा/ माइरोथीसियस) रोगों के नियंत्रण के लिए डायइथेन एम. 45, 2.5 ग्रा/लीटर या कार्बेन्डाजिम,डायइथेन एम. 45 की मिश्रित दवा बना कर 2.0 ग्राम/लीटर पानी में घोल कर वर्षा के दिनों को छोड़कर खुले मौसम में छिड़काव करें। आवश्यकतानुसार छिड़काव 12-15 दिनों बाद पुनः करें।
मूंग के प्रमुख रोग और नियंत्रण के उपाय
पीला चितकबरी (मोजेक) रोग- रोग प्रतिरोधी अथवा सहनशील किस्मों जैसे टी.जे.एम.-3, के-851, पन्त मूंग -2, पूसा विशाल, एच.यू.एम. -1 का चयन करें। प्रमाणित एवं स्वस्थ बीजों का प्रयोग करें। बीज की बुवाई जुलाई के प्रथम सप्ताह तक कतारों में करें प्रारम्भिक अवस्था में रोग ग्रसित पौधों को उखाड़कर नष्ट करें।
यह रोग विषाणु जनित है जिसका वाहक सफेद मक्खी कीट है जिसे नियंत्रित करने के लिये ट्रायजोफॉस 40 ईसी, 2 मिली प्रति लीटर अथवा थायोमेथोक्साम 25 डब्लू जी. 2 ग्राम/ली. या डायमेथाएट 30 ई.सी., 1 मिली./ली. पानी में घोल बनाकर 2 या 3 बार 10 दिन के अंतराल पर आवश्यकतानुसार छिड़काव करें।
सर्कोस्पोरा पर्ण दाग को कैसे दूर करें?
रोग रहित स्वस्थ बीजों का प्रयोग करें। खेत में पौधे घने नहीं होने चाहिए। पौधों का 10 सेमी. की दूरी के हिसाब से विरलीकरण करें। रोग के लक्षण दिखाई देने पर मेन्कोजेब 75 डब्लू. पी. की 2.5 ग्राम लीटर या कार्बेन्डाइजिम 50 डब्लू. पी. की 1 ग्राम/ली. दवा का घोल बनाकर 2-3 बार छिड़काव करें।
एन्ट्राक्नोज: प्रमाणित एवं स्वस्थ बीजों का चयन करें। फफूंदनाशक दवा जैसे मेन्कोजेब 75 डब्लू. पी. 2.5 ग्राम/ली. या कार्बेन्डाजिम 50 डब्लू डी. की 1 ग्राम/ली. का छिड़काव बुवाई के 40 एवं 55 दिन पश्चात् करें।
चारकोल विगलन: बीजापचार कार्बेन्डाजिम 50 डब्लूजी. 1 ग्राम प्रति किग्रा बीज के हिसाब से करें। 2-3 वर्ष का फसल चक्र अपनाएं तथा फसल चक्र में ज्वार, बाजरा फसलों को सम्मिलित करें। भभूतिया (पावडरी मिल्ड्यू) रोग से बचाव के लिए रोग प्रतिरोधी किस्मों का चयन करें। समय से बुवाई करें। रोग के लक्षण दिखाई देने पर कैराथन या सल्फर पाउडर 2.5 ग्राम/ली. पानी में मिलाकर छिड़काव करें।
ऐसे दूर करें मूंग की फसल से खरपतवार
मूंग की फसल में नींदा नियंत्रण सही समय पर न करने से फसल की उपज में 40-60 प्रतिशत तक की कमी हो सकती है। खरीफ मौसम में फसलों में सकरी पत्ती वाले खरपतवार जैसेः सवा (इकाईनाक्लोक्लोवा कोलाकनम/कु सगेली), दूब घास (साइनोडॉन डेक्टाइलोन) एवं चौड़ी पत्ती वाले पत्थर चटा (ट्रायन्थिमा मोनोगायना), कनकवा (कोमेलिना वेघालेंसिस), महकुआ (एजीरेटम कोनिज्वाडिस), सफेद मुर्ग (सिलोसिया अर्जेंसिया), हजारदाना (फाइलेन्थस निरुरी) एवं लहसुआ (डाइजेरा आरसिस) तथा मोथा (साइप्रस रोटन्डस, साइप्रस इरिया) आदि वर्ग के खरपतवार बहुतायत निकलते हैं।
फसल और खरपतवार की प्रतिस्पर्धा की क्रान्तिक अवस्था मूंग में प्रथम 30 से 35 दिनों तक रहती है। इसलिए प्रथम निराई-गुड़ाई 15-20 दिनों पर और द्वितीय 35-40 दिन पर करना चाहिए। खरपतवार नाशक पेंडीमिथिलीन 700 ग्राम/हेक्टेयर बुवाई के 0-3 दिन तक, क्युजालोफाप 40-50 ग्राम बुवाई के 15-20 दिन बाद छिड़काव कर सकते हैं।
सिंचाई और जल निकासी की व्यवस्था जरूरी
प्रायः वर्षा ऋतु में मूंग की फसल को सिंचाई की आवश्यकता नहीं पड़ती है। फिर भी इस मौसम में एक वर्षा के बाद दूसरी वर्षा होने के बीच लंबा अन्तराल होने पर अथवा नमी की कमी होने पर फलियां बनते समय एक हल्की सिंचाई आवश्यक होती है।
बसंत एवं ग्रीष्म ऋतु में 10-15 दिन के अन्तराल पर सिंचाई की आवश्यकता होती है। फसल पकने के 15 दिन पूर्व सिंचाई बंद कर देना चाहिए। वर्षा के मौसम में अधिक वर्षा होने पर अथवा खेत में पानी का भराव होने पर फालतू पानी को खेत से निकालते रहना चाहिए, जिससे मिट्टी में वायु संचार बना रहता है।