
Music is the language of emotion: सूचना के संसार इंफोपोस्ट न्यूज में आपका स्वागत है। आज हम बात करेंगे संगीत की। पिछले दिनों नोएडा स्थित मारवाह स्टूडियो में संगीत पर आधारित एक उत्सव का आयोजन किया गया।
Music is the language of emotion: मारवाह स्टूडियो में भारतीय शास्त्रीय संगीत का उत्सव
इंफोपोस्ट न्यूज
नोएडा। Music is the language of emotion: संगीत के बिना सबका जीवन अधूरा है। इस सृष्टि का निर्माण संगीत से ही हुआ है। ओम शब्द में सम्पूर्ण सृष्टि समा जाती है। संगीत अपनी भावना को व्यक्त करने का सर्वोत्तम माध्यम है। इसीलिए आज हम संगीत के बिना किसी फिल्म या अपने जीवन को सोच भी नहीं सकते। यह जीवन में शांति लाता है। संघर्ष को समाप्त करता है। यह ब्रह्मांड को एक आत्मा, मन को पंख और कल्पनाओं को उड़ान देता है।
यह कहना था दो दिवसीय इंडियन क्लासिकल म्यूजिक फेस्टिवल में एएएफटी यूनिवर्सिटी के चांसलर डॉ. संदीप मारवाह का। मारवाह स्टूडियो के तीस साल पूरे होने के अवसर पर इस फेस्टिवल की शुरुआत की गई।

ऑनलाइन प्रस्तुति
प्रतिष्ठित संतूर वादक प्रभात मुखर्जी, शहनाई वादक योगेश कुमार शंकर, प्रसिद्ध सितारवादक डॉ. सुदीप राय, सारंगी वादक अनिल कुमार मिश्रा, जाने-माने गायक सुधांशु बहुगुणा और प्रसिद्ध सितार वादक पंडित प्रतीक चौधरी ने फेस्टिवल में ऑनलाइन प्रस्तुति दी।
डॉ. संदीप मारवाह ने पंडित प्रतीक चौधरी को भारत और विदेश में कला और संस्कृति के संवर्धन के लिए प्रतिष्ठित अटल बिहारी वाजपेयी राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया। डॉ. संदीप मारवाह ने सभी को मारवाह स्टूडियो इंटरनेशनल अवार्ड-एक्सीलेंस इन इंडियन क्लासिकल म्यूजिक से सम्मानित किया।
प्रकृति रस में लीन हो उठते हैं लोकगीत
संगीतमयी प्रकृति जब गुनगुना उठती है लोकगीतों का स्फुरण हो उठना स्वाभाविक ही है। विभिन्न ॠतुओं के सहजतम प्रभाव से अनुप्राणित ये लोकगीत प्रकृति रस में लीन हो उठते हैं। बारह मासा, छैमासा तथा चौमासा गीत इस सत्यता को रेखांकित करने वाले सिद्ध होते हैं। पावसी संवेदनाओं ने तो इन गीतों में जादुई प्रभाव भर दिया है। पावस ॠतु में गाए जाने वाले कजरी, झूला, हिंडोला, आल्हा आदि इसके प्रमाण हैं।
सामाजिकता को जिंदा रखने के लिए लोकगीतों/लोकसंस्कृतियों का सहेजा जाना बहुत जरूरी है। कहा जाता है कि जिस समाज में लोकगीत नहीं होते, वहां पागलों की संख्या अधिक होती है। सदियों से दबे-कुचले समाज ने, खास कर महिलाओं ने सामाजिक दंश/अपमान/घर-परिवार के तानों/जीवन संघषों से जुड़ी आपा-धापी को अभिव्यक्ति देने के लिए लोकगीतों का सहारा लिया। लोकगीत किसी काल विशेष या कवि विशेष की रचनाएं नहीं हैं।
अधिकांश लोकगीतों के रचइताओं के नाम अज्ञात हैं। दरअसल एक ही गीत तमाम कंठों से गुजर कर पूर्ण हुई है। महिलाओं ने लोकगीतों को ज़िन्दा रखने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। आज वैश्वीकरण की आंधी में हमने अपनी कलाओं को तहस-नहस कर दिया है। अपनी संस्कृतियां अनुपयोगी/बेकार की जान पड़ने लगी हैं।