सत्य ऋषि
भौतिक जगत का जितना विस्तार है, उससे कहीं ज्यादा बड़ा सूक्ष्म जगत है। भारतीय ऋषि और मुनि इसी सूक्ष्म जगत के रहस्य की खोज में लगे रहे। रहस्यों को वे तरह तरह से समझाने की कोशिश करते हैं। उनकी इसी कोशिश को दर्शन कहा गया। मतलब, जिस सत्ता को जन सामान्य नहीं देख पाता, उसे हमारे ऋषि मुनि देख लेते हैं।
दरअसल, भारत में ‘दर्शन’ उस विद्या को कहा जाता है जिससे तत्व का ज्ञान हो सके। ‘तत्व दर्शन’ या ‘दर्शन’ का अर्थ है तत्व का ज्ञान। मानव के दुखों की निवृत्ति के लिए ही भारत में दर्शन का जन्म हुआ। शोक और संशय तभी दूर होते हैं जब एक सत्य का दर्शन होता है।
इस संदर्भ में मनु का कथन है कि सम्यक दर्शन प्राप्त होने पर कर्म मनुष्य को बन्धन में नहीं डाल सकता और जिनको सम्यक दृष्टि नहीं है, वे ही संसार के महामोह और जाल में फंस जाते हैं। दर्शन ग्रन्थों को दर्शन शास्त्र भी कहते हैं। यह शास्त्र शब्द ‘शासु अनुशिष्टौ’ से निष्पन्न है।
महान अंग्रेजी विद्वान टी एस इलिएट के मुताबिक, भारतीय दार्शनिकों की सूक्ष्मताओं को देखते हुए यूरोप के अधिकांश महान दार्शनिक स्कूल के बच्चों जैसे लगते हैं। भारतीय दर्शन किस प्रकार और किन परिस्थितियों में अस्तित्व में आया, कुछ भी प्रामाणिक रूप से नहीं कहा जा सकता। लेकिन इतना स्पष्ट है कि उपनिषद काल में दर्शन एक पृथक शास्त्र के रूप में विकसित होने लगा था।
तत्त्वों के अन्वेषण की प्रवृत्ति उस सुदूर काल से है, जिसे हम ‘वैदिक युग’ के नाम से पुकारते हैं। ऋग्वेद के अत्यन्त प्राचीन युग से ही भारतीय विचारों में द्विविध प्रवृत्ति और द्विविध लक्ष्य के दर्शन हमें होते हैं। प्रथम प्रवृत्ति प्रतिभा या प्रज्ञामूलक है और द्वितीय प्रवृत्ति तर्कमूलक है।
प्रज्ञा के बल से ही पहली प्रवृत्ति तत्त्वों के विवेचन में कृतकार्य होती है और दूसरी प्रवृत्ति तर्क के सहारे तत्त्वों के समीक्षण में समर्थ होती है। अंग्रेजी शब्दों में पहली की हम ‘इन्ट्यूशनिस्टिक’ कह सकते हैं और दूसरी को रेशनलिस्टिक। लक्ष्य भी आरम्भ से ही दो प्रकार के थे-धन का उपार्जन और ब्रह्म का साक्षात्कार।
प्रज्ञामूलक और तर्क-मूलक प्रवृत्तियों के परस्पर सम्मिलन से आत्मा के औपनिषदिष्ठ तत्त्वज्ञान का स्फुट आविर्भाव हुआ। उपनिषदों के ज्ञान का पर्यवसान आत्मा और परमात्मा के एकीकरण को सिद्ध करने वाले प्रतिभामूलक वेदान्त में हुआ।
भारतीय मनीषियों के उर्वर मस्तिष्क से जिस कर्म, ज्ञान और भक्तिमय त्रिपथगा का प्रवाह उद्भूत हुआ, उसने दूर-दूर के मानवों के आध्यात्मिक कल्मष को धोकर उन्हें पवित्र, नित्य-शुद्ध-बुद्ध और सदा स्वच्छ बनाकर मानवता के विकास में योगदान दिया है।
इसी पतितपावनी धारा को लोग दर्शन के नाम से पुकारते हैं। अन्वेषकों का विचार है कि इस शब्द का वर्तमान अर्थ में सबसे पहला प्रयोग वैशेषिक दर्शन में हुआ। भारतीय दर्शनों पर चर्चा जारी रहेगी। आज इतना ही। तब तक के लिए सत्य को प्रणाम।