Nationalism: इसे मौजूदा विपक्ष का नाकारापन ही माना जाएगा कि सत्तारूढ़ पार्टी भाजपा खोखले और आडंबर से भरे राष्ट्रवाद के बल पर न केवल देश पर राज कर रही है बल्कि विपक्ष पर भी हावी है।
Nationalism: तालिबान के कब्जे को भुनाने की कवायद
चरण सिंह राजपूत
नई दिल्ली। Nationalism: अपने ही राज में होने वाले पुलवामा आतंकी हमले को भुनाकर फिर से केंद्र की सत्ता पर काबिज होने वाली भाजपा अफगानिस्तान पर तालिबान के कब्जे को भुनाने में लग गई है।
ऐसे में प्रश्न उठता है कि क्या वास्तव में भाजपा देशभक्ति को बढ़ावा देना चाहती है। यदि भाजपा और उसके मातृ संगठन आरएसएस के क्रियाकलापों की समीक्षा करें तो पाएंगे कि भाजपा का दूर-दूर तक देशभक्ति से कोई लेना देना नहीं है।
उसका राष्ट्रवाद खोखला है और इसी राष्ट्रवाद से वह सत्ता कब्जाए हुए है। यह अपने आप में दिलचस्प है कि जिस लोकतंत्र के भाजपा मजे लूट रही है, उसी लोकतंत्र के लिए लड़ी जा रही आजादी की लड़ाई का ये लोग विरोध कर रहे थे।
भाजपा के लिए असली दुश्मन
Nationalism: यह जमीनी हकीकत है कि एक ओर देश आजादी की लड़ाई लड़ रहा था तो दूसरी ओर आरएसएस अंग्रेजी शासन से सीधे टकराव से बच रहा था। आरएसएस और भाजपा तो अपना असली दुश्मन मुसलमानों को मानते रहे हैं।
यही वजह थी कि ये लोग अंग्रेजी शासन को सही ठहराते थे। आरएसएस का मानना था कि यदि अंग्रेज न आते तो देश पर मुगलों का ही राज होता। भाजपा का राष्ट्रवाद कितना देशभक्ति से भरा है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जब भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव फांसी के फंदे पर झूल रहे थे तब शहीदों का मजाक उड़ाते हुए आरएसएस के कथित नायक अंग्रेजों की मदद कर रहे थे।
एक प्रतिक्रियावादी विचार
Nationalism: आरएसएस और हिन्दू महासभा के नेताओं के लेखों के कुछ अंश यह दर्शाने के लिए पर्याप्त हैं कि अंग्रेजों के खिलाफ चल रहे स्वतंत्रता संग्राम के प्रति इनमें कितना विरोध था। ‘अंग्रेजी-सत्ता का विरोध देशभक्ति और राष्ट्रवाद कहा जा रहा है।
यह एक प्रतिक्रियावादी विचार है। इस विचार का स्वाधीनता आंदोलन, इसके नेताओं और सामान्य जनता पर भयावह प्रभाव पड़ेगा। -(एम.एस. गोलवलकर, बंच ऑफ थॉट्स, बंगलौर 1996, पृ. 138)।
‘संघर्ष के बुरे परिणाम निकले। 1920-21 के आंदोलन के बाद लड़के क्रांतिकारी बन गए… 1942 के बाद, लोग सोचने लगे कि कानून का विचार करने की कोई जरूरत ही नहीं है। ‘1920-21 के असहयोग आंदोलन और 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के प्रभाव के बारे में गोलवलकर के विचार (श्रीगुरुजी समग्र दर्शन, चौथा भाग, नागपुर, पृ. 41)।
‘1942 में लोगों के हृदय में उफान था। इस समय भी संघ अपना दैनंदिन कार्यक्रम चलाता रहा। संघ ने सीधे कुछ भी न करने का निर्णय लिया था। (श्रीगुरुजी समग्र दर्शन, चौथा भाग, नागपुर, पृ. 40)।
वीरता का ये कैसा रिकार्ड?
Nationalism: भाजपा और आरएसएस अपने एक भी नेता का नाम नहीं ले सकते जो आजादी की लड़ाई में शहीद हुआ हो या फिर जेल गया हो। ये सावरकर को वीर कहते हैं, लेकिन उनका रिकार्ड क्या था?
हिंदुत्व का नेता बनने से पहले तो उन्होंने अंग्रेजों का विरोध किया, लेकिन अपनी दूसरी गिरफ्तारी और मुकदमे के दौरान जब उन्हें 1911 में अंडमान भेज दिया गया तब उन्होंने अंग्रेजों की वफादारी की कसमें खानी शुरू कर दी और अनेक दया याचिकाओं में अपनी रिहाई की भीख मांगने लगे।
24 नवंबर 1913 को लिखे गए एक पत्र में उन्होंने अपनी रिहाई के लिए याचना को फिर से दोहराया और कहा कि वे अपने पुराने मार्ग का परित्याग करके ‘सरकार के प्रति वफादारी का… जबर्दस्त प्रवक्ता… एक भटका हुआ बेटा सरकार के पितृवत दरवाजे के अलावा भला और कहां जा सकता है?
रिहाई का आदेश और बाध्यताएं
जनवरी 1924 में अपनी रिहाई का आदेश प्राप्त किया, जिसमें साफ लिखा था कि ‘वे सार्वजनिक या व्यक्तिगत रूप से किसी भी रूप में राजनीतिक गतिविधि में सरकार की अनुमति के बिना भाग नहीं लेंगे।
अंग्रेज सरकार की छत्रछाया में सावरकर और संघ परिवार सिर्फ एक राजनीतिक गतिविधि में भाग लेते थे और वह था सांप्रदायिक दंगे भड़काना और हां, सावरकर के जीवन की सर्वोच्च उपलब्धि थी कि वे महात्मा गांधी की हत्या का षड्यंत्र रचने में शामिल थे।
संघ परिवार के एक अन्य नायक श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने तो भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान बंगाल के मंत्रिमंडल से इस्तीफा देने से इंकार कर दिया। इतना ही नहीं, बंगाल सरकार में मंत्री के बतौर उन्होंने 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन का दमन करने में अंग्रेजों की मदद करने और उन्हें सलाह देने में सक्रिय सहयोग की पेशकश की थी।
आरएसएस की बात
1942 में उन्होंने लिखा-‘सवाल यह नहीं है कि बंगाल में इस आंदोलन का मुकाबला कैसे किया जाए। प्रांत में प्रशासन को इस तरीके से चलाना चाहिए जिससे तमाम कोशिशों के बावजूद .. यह आंदोलन प्रांत में अपनी जड़ें जमाने में सफल न हो पाए।
‘जहां तक इंग्लैंड के बारे में भारत के रुख की बात है तो इस मौके पर इनके बीच किसी भी प्रकार का संघर्ष नहीं होना चाहिए… जो व्यक्ति भी जन भावनाओं को भड़काकर आन्तरिक विक्षोभ और असुरक्षा पैदा करना चाहता है, सरकार को उसका कड़ाई से विरोध करना चाहिए।
यह बात तो आरएसएस की है।
अब भाजपा की देख लीजिए। जब 2002 में भाजपा के समर्थन से मायावती उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनीं तो वह चंद्रशेखर आजाद के नाम पर एक महाविद्यालय का नाम बदल रही थीं, तो एक पत्रकार ने प्रेस कांफ्रेंस में इस बारे में उनसे पूछा लिया। तो मायावती ने तपाक से कहा कि उस आतंकवादी चंद्रशेखर बात बात कर रहे हो तुम।
हरिओम पवार की कविता
यह बाकायदा प्रख्यात कवि हरिओम पवार ने चंद्रशेखर आजाद पर तैयार की कविता सुनाने से पहले कही है। हरिओम पवार का कहना है कि भानुप्रताप शुक्ल का इस मामले पर जब उन्होंने लेख पढ़ा तो भाजपा के समर्थन से मुख्यमंत्री बनी मायावती के यह कहने पर उन्हें आश्चर्य हुआ।
वह मामले को लेकर तत्कालीन गृहमंत्री लालकृष्ण आडवानी के पास गए तो उन्होंने चुप्पी साध ली। पास में ही बैठे तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से जब उन्होंने मायावती के चंद्रशेखर आजाद को आतंकवादी कहने की बात कही तो अटल जी ने कहा, ‘क्या तुम चाहते हो कि हम सरकार गिरा दें।
भाजपा का मौजूदा राष्ट्रवाद देख लीजिए। मोदी सरकार बनने से पहले यानी कि 2014 से पहले तक एक असली देश भक्त वो होता था जो देश के प्रति अपने कर्तव्यों का निर्वाहन करे और सजगता के साथ देश की शान्ति खुशहाली और तरक्की में अपना योगदान दे।
देशभक्ति की परिभाषा
Nationalism: पर मोदी सरकार में देशभक्ति की परिभाषा ही बदल गई है। आज की निराशाजनक और भयावह स्थिति देख कर लगता है कि यह परिभाषा भारतीय संविधान की मूल भावना के साथ दफऩ कर दी गई है। और शायद यही कारण है की आज एक दंगा फैलाने के आरोपी की लाश के ऊपर हमारा तिरंगा शर्मशार हो रहा है।
तड़ीपार नेता जो खुद हत्या का आरोपी है और जिनका नाम सुसाइड नोट में है, देश को राष्ट्रवाद का पाठ पढ़ा रहे हैं। अमिताभ बच्चन जिनका नाम पनामा टैक्स चोरी केस में आया है, आज प्रखर राष्ट्रवाद पर मुखर भाषण दे रहे हैं।
आज राष्ट्रवादी वह नहीं है जो गांधी के सत्यता के विचारों पर चले बल्कि वह है जो बेशर्मी के साथ सेना के पराक्रम का श्रेय 56 इंच की छाती पीट पीट कर खुद ले ले। यह भाजपा का राष्ट्रवाद ही है कि भारतीय राजनीति इस प्रकार से प्रदूषित हो गई है कि आज अगर बापू, पंडित नेहरू, पटेल और अंबेडकर जि़ंदा होते तो उन्हें भी देशद्रोही ठहरा दिया जाता।
बयानों को इस प्रकार से तोड़ मरोड़ के दिखाया जाता कि शांति बहाली की अपील को सेना का अपमान बताया जाता। अल्पसंख्यकों और दलितों के तुष्टिकरण का आरोप लगाया जाता। टीवी पर प्राइमटाइम में उनके बयानों की निंदा होती और हर गली महल्लों में छुटभैया नेता उनके पुतले जला रहे होते।