New for peasent movement: किसानों ने सरकार पर दबाव बनाने के लिए जनप्रतिनिधियों को घेरने की नीति बनाई है। वे कई राजमार्गों को जाम कर रहे हैं। मोदी सरकार किसान संगठनों में फूट डाल कर आंदोलन को तोड़ने में लग गई है। इसमें दो राय नहीं कि किसानों ने सरकार को घुटनों के बल ला दिया है।
New for peasent movement: किसान कानूनों को वापस कराने को सब कुछ भूल बस बनना होगा किसान
चरण सिंह
New for peasent movement: किसान कानूनों पर सरकार का प्रस्ताव ठुकराने के बाद किसान आंदोलन ने एक नया मोड़ ले लिया है। किसानों ने सरकार पर दबाव बनाने के लिए जनप्रतिनिधियों को घेरने और विभिन्न राजमार्ग जाम करने की नीति बनाई है। मोदी सरकार किसान संगठनों में फूट डाल आंदोलन तोड़ने में लग गई है।
इसमें दो राय नहीं कि किसानों ने सरकार को घुटनों के बल ला दिया है। पर किसानों को यह समझ कर आगे बढऩा होगा कि मोदी सरकार के साथ पूंजीपतियों की जमात है। लोकतंत्र और संविधान की रक्षा के लिए बिकाऊ तंत्र भी हैं।
निश्चित रूप से किसान नेताओं के पास बस आत्मबल और विभिन्न राज्यों के किसान संगठनों के साथ ही ट्रेड यूनियनों और आम आदमी का साथ है । साथ ही विदेश में कनाडा, अमेरिका और ब्रिटेन में भी किसान आंदोलन के पक्ष में आवाज उठ रही है पर सरकार को जितना गंभीर लिया जाएगा आंदोलन उतना मजबूत बनेगा।
मोदी सरकार में हुए किसान आंदोलन
New for peasent movement: यदि मोदी सरकार में हुए किसान आंदोलनों पर जाएं तो हरियाणा के गुमनाम सिंह चढुनी किसान यूनियन, मध्य प्रदेश के कक्का जी किसान नेता के साथ ही समाजसेवक के रूप में प्रचालित रहे हैं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश से भाकियू के राष्ट्रीय प्रवक्ता राकेश टिकैट किसान नेता महेन्द्र सिंह टिकैट की विरासत को आगे लेकर आगे बढ़ रहे हैं पर उन्हें रक्षामंत्री राजनाथ सिंह का करीबी भी माना जाता है।
वैसे भी उनका ज्यादा जोर एमएसपी पर रहा है। इसमें दो राय नहीं सबसे पहले दिल्ली बार्डर पर पंजाब से आए किसानों ने मोर्चा संभाला था। यही वजह रही कि मोदी सरकार और उनके समर्थकों ने किसान आंदोलन को खालिस्तान समर्थकों से जोडऩे का प्रयास किया। अब जब किसान संगठनों ने अंबानी और अडानी के प्रोडक्टों के बहिष्कार का आह्वान किया है तो भाजपा नेता और उनके समर्थक किसान आंदोलन को पाकिस्तान और चीन से जोडऩे लगे।
ऐसे में प्रश्न उठता है कि अब किसानों की लड़ाई मोदी सरकार से है या फिर अडानी और अंबानी से। दरअसल किसानों को अब मोदी सरकार और अडानी अंबानी से ही नहीं बल्कि मोदी मीडिया, कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका से भी लड़ना है।
तंत्रों की कार्यप्रणाली
वजह साफ है कि यदि मोदी सरकार के कार्यकाल में संविधान और लोकतंत्र की रक्षा के लिए बनाए तंत्रों की कार्यप्रणाली, जिम्मेदारी और जवाबदेही की समीक्षा करें तो इन तंत्रों ने संविधान और लोकतंत्र के लिए कम और मोदी सरकार के लिए ज्यादा काम किया है।
किसानों के राजमार्ग जाम करने और नेताओं के घेराव करने पर मोदी सरकार के साथ ही विभिन्न राज्यों में चल रहीं भाजपा सरकारों कर रणनीति होगी कि पुलिस ज्यादती के साथ किसानों पर गंभीर धाराओं में मुकदमे दर्ज कराए जाएं। जिस तरह से राम मंदिर, मजीठिया वेज बोर्ड, अर्नब गोस्वामी, प्रशांत भूषण, कुणाल कामरा मामले में सुप्रीम कोर्ट का रुख रहा है ऐसे में न्यायपालिका से भी किसान हित की ज्यादा उम्मीद नहीं की जा सकती है।
मोदी सरकार राकेश टिकैट को मैनेज करने के लिए राजनाथ सिंह को तो कक्का जी को मैनेज करने के लिए मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज चौहान को लगा सकती है। हिन्दुत्व, पाकिस्तान और चीन का नाम ले-लेकर हिन्दू वोट बैंक को एकजुट करने वाली भाजपा किसान आंदोलन को तोड़ने में भी जाति और धर्म का कार्ड खेल सकती है।
किसान आंदोलन के खिलाफ दुष्प्रचार
वैसे भी पंजाब के किसानों को खालिस्तानी समर्थकों के रूप में पहले से ही प्रचालित किया जा रहा है। अडानी और अंबानी के विरोध को वामपंथियों से जोड़कर चीन के किसान आंदोलन को बढ़ावा देने भी दुष्प्रचार किया जा सकता है। हालांकि कृषि मंत्री नरेंद्र तोमर लगातार किसानों से आंदोलन को खत्म करने और बातचीत करने की अपील कर रहे हैं पर अंदरखाने की रिपोर्ट यह है कि भाजपा ने किसान नेताओं को तोड़ने की रणनीति पर काम करना शुरू कर दिया है।
भाकियू के एमएसपी के लिए सुप्रीम कोर्ट जाने का दुष्प्रचार भी इसी रणनीति का हिस्सा था। वह तो भाकियू के महासचिव युद्धवीर सिंह ने इसका खंडन कर दिया। ऐसे में प्रश्न उठता है कि किसान संगठनों को ऐसा क्या करना चाहिए कि किसान नेता भी न टूटे और आंदोलन के दबाव में सरकार भी आ जाए ?
अक्सर देखने आता है कि अधिकतर आंदोलन जाति धर्म या फिर क्षेत्रवाद के नाम पर टूटते हैं। ऐसे में किसान संगठनों के पास सरकार को झुकाने का एकमात्र ही रास्ता है कि अब किसान आंदोलन किसान बन कर ही आगे बढ़ाया जाए।
किसी राजनीतिक दल की छाप नहीं
चाहे कोई संगठन, किसी भी राज्य का हो, चाहे किसी भी क्षेत्र का व्यक्ति हो, कितना भी बड़ा हो, महिला किसान हों, पुरुष किसान और उनके बच्चे हों सब किसान, किसान की बहू, बेटी और बेटा बनकर इस आंदोलन को आगे बढ़ाएं। हालांकि स्वराज इंडिया के अध्यक्ष योगेन्द्र यादव के लगातार किसान आंदोलन से जुड़े होने के बावजूद, कांग्रेस, आप, सपा, राजद, तृमूंका के साथ विभिन्न राजनीतिक दलों के समर्थन के बावजूद इस पर किसी राजनीतिक दल की छाप नहीं पड़ पाई है।
यही वजह है कि मोदी सकार और उसके समर्थकों द्वारा कांग्रेस के साथ आंदोलन को जोडऩे के तमाम प्रचार का बावजूद वह किसान आंदोलन को कांग्रेस का आंदोलन बनाने में नाकामयाब ही रही। वैसे किसानों के परिवारों से महिलाओं व बच्चों ने भी आगे बढ़कर मोर्चा संभाला है पर मोदी सरकार आंदोलन को तोड़ने में अंग्रेजों से ज्यादा हथकंडे अपनाती है।
ऐेसे में किसान नेताओं की जिम्मेदारी और बढ़ जाती है कि किसी किसान संगठन के बड़े नेता का सरकार में किसी बैठे नेता के संपर्क में आना आंदोलन के लिए घातक साबित हो सकता है।