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इंफोपोस्ट डेस्क, नयी दिल्ली। one nation one election:
‘एक देश एक चुनाव’ की सुगबुगाहट के बीच देश के कई राजनीतिक दलों में घबराहट है। इस सुगबुगाहट को तब हवा मिली जब केंद्र की मोदी सरकार ने देश में एक साथ सभी चुनाव कराने की कमेटी बना दी और इसका अध्यक्ष पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद को बना दिया। केंद्र सरकार ने संसद का विशेष सत्र बुला लिया है। यह सत्र 18 से 22 सितंबर तक चलेगा कर सत्र में लगातार पांच बैठकें होंगी। अगर सरकार इस विशेष सत्र में एक चुनाव का बिल लेकर आती है तो यह चुनाव सुधार की दिशा में बहुत बड़ा कदम होगा। देश के करोड़ों रुपये बचेंगे। साथ ही बार बार किसी न किसी राज्य में चुनाव होने से विकास कार्य बाधित नहीं होंगे। निश्चित तौर पर यह कदम मील का पत्थर साबित होगा।
आएंगी संवैधानिक दिक्कतें
वैसे एक देश एक चुनाव देश के विकास में तेजी लाएगा। लेकिन इससे कई संवैधानिक दिक्कतें आ सकती हैं। हालांकि यह शुरूआती दौर में ही होंगी। दूर की सोचें तो इससे देश का सिर्फ फायदा ही फायदा ही है। इन सबके बीच 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले अगस्त 2018 में लॉ कमीशन की एक रिपोर्ट आई थी। इसमें कहा गया था कि अगर लोकसभा और विधानसभा के चुनाव साथ होते हैं तो एक्स्ट्रा खर्च भी कम हो जाएगा।
2019 में 55000 करोड़ का खर्च
one nation one election: एक मीडिया रिपोर्ट में सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज के हवाले से बताया गया कि 2019 के चुनावों में 55000 करोड़ रुपये का खर्च आया था जो 2016 में अमेरिका में हुए राष्ट्रपति चुनावों से भी ज्यादा है। इस चुनाव में हर वोटर पर आठ डॉलर का खर्च आया था जबकि देश में आधी से ज्यादा आबादी रोजाना तीन डॉलर से भी कम पर गुजारा करने को मजबूर है।
22 के चुनाव में इतना बढ़ गया चुनावी खर्च
one nation one election: साल 2022 में चुनाव आयोग ने पांच राज्यों पंजाब, मणिपुर, उत्तर प्रदेश, गोवा और उत्तराखंड में हुए विधानसभा चुनावों में हुए खर्च के आंकड़े जारी किए, जिनमें बीजेपी ने 340 करोड़ रुपए और कांग्रेस ने 190 करोड़ रुपये खर्च किए थे। इसका मतलब यह हुआ कि यही चुनाव जब एक साथ यानी कि लोकसभा के साथ होंगे तो काफी खर्च बचेगा। ये वे आंकड़े हैं जो पार्टियों ने चुनाव आयोग के दिए हैं. असली खर्चे इससे ज्यादा हो सकते हैं।
यह है ‘एक देश एक चुनाव’
देश में अलग अलग कई तरह के चुनाव होते हैं। ‘एक देश एक चुनाव’ की कवायद लोकसभा और राज्यों के विधानसभा चुनावों को एक साथ कराने के लिए है। अभी लोकसभा चुनाव और राज्यों के विधानसभा चुनाव अलग-अलग वक्त पर होते हैं। सरकार ने 5 साल का कार्यकाल पूरा कर लिया तो समय पर चुनाव और अगर किसी राज्य में सरकार कार्यकाल पूरा न कर पाए तो मध्यावधि चुनाव। देश में सालभर कहीं न कहीं, चुनाव का मौसम चलता ही रहता है।
1967 तक तो एक ही साथ होते रहे थे चुनाव
one nation one election: देश जब आजाद हुआ तो 1952 में पहली बार चुनाव हुए। तब लोकसभा के साथ-साथ सभी राज्यों की विधानसभाओं के लिए एक ही साथ चुनाव हुए। 1957 में भी लगभग यही हुआ। तब राज्यों के पुनर्गठन यानी नए राज्यों के बनने की वजह से 76 प्रतिशत स्टेट इलेक्शन लोकसभा चुनाव के ही साथ हुए। लेकिन एक चुनाव का ये चक्र पहली बार तब गड़बड़ हुआ जब 1959 में केंद्र की तत्कालीन जवाहर लाल नेहरू सरकार ने पहली बार अनुच्छेद 356 का इस्तेमाल करते हुए केरल की कम्युनिस्ट सरकार को बर्खास्त कर दिया। 1957 में लेफ्ट ने केरल में जीत दर्ज की थी और ई.एम.एस. नंबूरदरीपाद मुख्यमंत्री बने। लेकिन जुलाई 1959 में उनकी सरकार बर्खास्त होने के बाद फरवरी 1960 में केरल में फिर विधानसभा चुनाव हुए। देश में किसी भी राज्य में मध्यावधि चुनाव का ये पहला मामला था।
इसके बाद ही एक साथ चुनाव का क्रम टूट गया लेकिन मोटे तौर पर 1967 तक ‘वन नेशन वन इलेक्शन’ का सिलसिला चलता रहा। 1962 में और 1967 में 67 प्रतिशत राज्यों के विधानसभा चुनाव लोकसभा चुनाव के साथ हुए। लेकिन ये सिलसिला 1970 आते-आते लगभग पूरी तरह टूट गया। 1970 में तो लोकसभा भी समय से पहले भंग हो गई और 1971 में चुनाव कराने पड़े। इस तरह 1971 के बाद लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव अलग-अलग ही होने लगे।