
गोस्वामी तुलसीदास का संदर्भ लें तो कविता के बारे में उन्होंने अनूठी बात कही है—निज मुख मुकुर मुकुर निज पानी। कहि न जाइ अस अदभुत बानी। सुगम अगम मृदु मंजु कठोरे। अरथ अमित अति आखर थोरे। अर्थात कविता सरल और कठिन, मधुर और कठोर दोनों हो सकती है। थोड़े से शब्दों में ढेर सारे अर्थों वाली हो सकती है।
इस प्रसंग में चर्चा करते हैं पंकज राहिब की, जिनका कविता संग्रह ‘आसमान छूने में’ चर्चा का विषय बना है। हम जानेंगे कि राहिब की नजर में कविता का क्या महत्व है।
पंकज राहिब का नया कविता संग्रह
‘आसमान छूने में’ पंकज राहिब का नया कविता संग्रह है। पंकज इससे पहले राष्ट्रीय चेतना के ज्वलंत विषयों पर सतत लेखन करते रहे हैं। विदेश नीति, श्रम, स्वच्छता, महिला आबादी, जीएसटी और स्वास्थ्य जैसे सार्वजनिक महत्व वाले विषयों पर उनकी पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।
अब उन्होंने अपने मन की बातों को पद्यात्मक शैली में कहने का निर्णय किया है। ‘आसमान छूने में’ के माध्यम से यह निर्णय मूर्त रूप में प्रस्तुत हुआ है।
कविता बड़ी प्यारी चीज
स्वयं पंकज राहिब भी मानते हैं कि कविता बड़ी प्यारी चीज होती है। बड़ी आसानी से गहरी बात कर देने का प्रभावी माध्यम होती है। कविता ही वह भूमि है, जिसमें सदियों से मानवीय विचारों की फसल अपना मौलिक स्वरूप प्राप्त करती रही है। इसी भूमि से न जाने कितनी बार ज्ञान, दर्शनबोध, मोक्ष, निर्वाण, पांडित्य, क्रांति और सामाजिक राजनैतिक सुधारों की कोंपलें फूटी हैं।
मनस और हृदय हो निर्मल
तब जीवन में आवैं कुछ फल
जीवन होता जाए सरल
मिट जाए सब इसका गरल।
इस कविता संग्रह में छोटी-बड़ी कुल 47 कविताएं हैं। कुछ विचारोत्तेजक हैं तो कुछ सुझावात्मक। कुछ आपबीती हैं तो कुछ जगबीती। कुछ भौतिक हैं तो कुछ आध्यात्मिक। कवि का आध्यात्मिक पक्ष कई कविताओं में उभर कर सामने आया है। एक उदाहरण देखिए –
मेरे प्रभु
मेरा ही मन
बाधक मेरे उत्थान में
मेरा ही मन
बाधक मेरे निर्वाण में
मेरा ही कर्म
धकेले मुझे अंधकार में
मेरा ही मर्म
खीचें मुझे संसार में।
आजकल के आध्यात्मिक गुरुओं का व्यावसायीकरण हो गया है। इन गुरुओं की आए दिन किसी न किसी स्कैण्डल में फँसने की खबरें आती ही रहती हैं। इसी पर ध्यान केन्द्रित करते हुए पंकज ने लिखा है-
सद्गुरु
अब बहुत अधिक
व्यस्त हो चले हैं।
अब उनसे
मिलना आसान नहीं
रह गया है।
उनसे
मुलाकात के लिये
महीनों पहले
अप्वाइटमेंट
लेना पड़ता है।
खुद
सद्गुरु भी
कभी कभी
व्यथा व्यक्त करते हैं।
उन्हें अब
योग-साधना, अध्ययन
चिन्तन-मनन का
समय नहीं मिलता।
लेखक अपने आस-पास होने वाली घटनाओं के बारे में अत्यन्त सचेत है, सतर्क है। लेखक का पर्यावरण ऐसा विषय है जिसकी अनदेखी करना मानव संतति के लिए भारी पड़ेगी, कवि इस पर विचार करते हुए अपनी भावनाएं प्रकट करता है-
भारत नया बनाना होगा
पर्यावरण बचाना होगा।
समाज, प्रकृति और पशु-पक्षी सब
सहकार और सहभाव के बल पर
साथ रहें खुश-स्वस्थ रहें
ऐसा समभाव बनाना होगा।
इस संग्रह की अनेक कविताएं नब्बे के दशक के उत्तरार्द्ध में सृजित हुई हैं, जब दुनिया एक विशिष्ट परिवर्तन के दौर से गुजर रही थी। सामाजिक ताने-बाने में व्यापक परिवर्तन आ रहे थे। दुनिया एक ग्लोबल विलेज के रूप में परिवर्तित हो रही थी।
आर्थिक नीतियों में बदलाव सामने आ रहे थे। बाजार आम आदमी का नीति नियन्ता बनता जा रहा था। ऐसे परिवर्तनगामी समय में लेखक अपने वातावरण से प्रभावित होता है। वातावरण का लेखक के ऊपर क्या प्रभाव पड़ा, यह इस कविता से प्रकट होता है।
मिथ्या मोह में
यह दुनिया
प्लास्टिक से पटती
जा रही है
धीरे-धीरे
जहर से भरती
जा रही है
और धीर-धीरे
मरती जा रही है।
कवि वही है जो आपबीती को लिखे और जगबीती बना दे। कवि ने अपने बचपन की यादों को ताजा करते हुए कई कविताएं लिखी हैं। टी0वी0 व रेडियो इसी प्रकार की वैयक्तिक अनुभव से उपजी कविताएं हैं-
रेडियो
सदा से ही
मेरी जिंदगी का
अहम हिस्सा रहा है
और
इससे गहराई से जुड़ा
मेरी जिंदगी का
हर हिस्सा
और तकरीबन हर किस्सा है।
सिविल सोसायटी की स्थापना के मद्देनजर लेखक हमारे समाज की कमियों को हमें बताता है। लेखक नागरिकों को सिविल सोसायटी का मुख्य धड़ा मानते हुए लिखता है कि-
हम
भारत के नागरिक
जब घर में होते हैं
तो
यहां हम
कोई अनुशासन
नहीं मानते,
यहां हम
राह चलते
कहीं भी
थूक देते हैं।
कहीं भी गुटखा, खाकर
पन्नी झाड़ देते हैं
कहीं भी बीच रोड
खड़े होकर
छोटी-मोटी शंकाओं से
निपट लेते हैं।