श्रीकांत सिंह
पटना। (PM material) बिहार की राजनीति विधानसभा चुनावों के इर्द गिर्द घूम रही है। लेकिन असली निशाना भविष्य के लोकसभा चुनाव पर है। कुछ समय पहले की बात है। नीतीश कुमार में पीएम मटीरियल पाया गया था। शायद यही उनके लिए मुसीबत बन गया है। भाजपा की राजनीति से यही ध्वनित होता है कि जिसमें भी (PM material) पीएम मटीरियल मिले, निपटा दो उसे। पीएम मटीरियल का मतलब जो प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बन सकता है।
दरअसल, जेडीयू प्रवक्ता राजीव रंजन ने कहा था कि नीतीश कुमार (PM material) भी पीएम पद के लिए चेहरा हो सकते हैं। जेडीयू प्रवक्ता ने कहा कि नीतीश कुमार का संसदीय जीवन पूरे देश में मिसाल है। बिहार में विकास को नया आयाम देने में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका है। लेकिन उन्होंने नरेन्द्र मोदी को एनडीए का सर्वमान्य पीएम उम्मीदवार माना था। साथ ही कहा था कि अगर पूरे देश में पीएम पद के लिए चेहरा को लेकर चर्चा होगी तो नीतीश कुमार भी उनमें शामिल हैं।
यूं तो बिहार की धरती हमेशा राजनीति के नए दांव-पेच की प्रयोगशाला बनती रही है। लेकिन इस बार के विधानसभा चुनाव में दांव—पेच की पराकाष्ठा है। कोरोना काल में हो रहे चुनाव में पहली बार गठबंधन के अंदर गठबंधन की राजनीति देखने को मिल रही है। महागठबंधन की बात हो या एनडीए की दोनों में सहयोगी दलों के बीच एक दूसरे से आगे निकलने की होड़ दिख रही है।
असल लड़ाई बीजेपी बनाम नीतीश कुमार
एनडीए सत्ताधारी दल है। इसलिए जनता का ज्यादा फोकस इन्हीं पर है। बिहार विधानसभा चुनाव में असल लड़ाई बीजेपी बनाम (PM material) नीतीश कुमार हो गई है। इस मुकाबले में चिराग पासवान और उनकी पार्टी एलजेपी का इस्तेमाल मोहरा के रूप में किया जा रहा है।
2014 के लोकसभा चुनाव से पहले बिहार में स्पष्ट था कि जेडीयू बड़ा भाई और बीजेपी छोटे भाई के रोल में रहती थी। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने भी एनडीए के नेताओं के सामने साफ कर दिया था कि बिहार में एनडीए का नेतृत्व नीतीश कुमार ही करेंगे।
हालांकि 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद हालात बदल गए हैं। इस चुनाव में नीतीश कुमार की उम्मीदों से विपरीत नरेंद्र मोदी की अगुवाई में देश भर की जनता ने बीजेपी को प्रचंड बहुमत दिया। इसके बाद जब 2016 में बीजेपी और जेडीयू साथ आए तो दोनों के बीच यह बात होने लगी कि बड़ा भाई कौन?
2019 के लोकसभा चुनाव के दौरान बीजेपी और जेडीयू ने बराबर-बराबर सीटों पर प्रत्याशी उतारे। इसके बाद भी बड़े भाई और छोटे भाई की बात बंद नहीं हुई। बिहार विधानसभा चुनाव आते-आते बीजेपी के नेता जेडीयू+बीजेपी को जुड़वा भाई कह कर संबोधित कर रहे हैं। जेडीयू के नेता इस बयान पर चुप्पी साध जाते हैं। इसी बहस के बीच चर्चा है कि बीजेपी और जेडीयू में कौन ज्यादा सीटों पर प्रत्याशी उतारेगा।
किसका होगा ज्यादा उम्मीदवार
इस बार के चुनाव में बीजेपी-जेडीयू में किसके ज्यादा उम्मीदवार होंगे, यह विवाद अब तक नहीं सुलझ पाया है। पहले चरण की वोटिंग के लिए नॉमिनेशेन के लिए चार दिन का समय बीत चुका है। लेकिन बीजेपी और जेडीयू ने सीटों के बंटवारे का औपचारिक ऐलान नहीं किया है। दोनों दलों के बीच जारी जंग से लोकजनशक्ति पार्टी को एनडीए से अलग होना पड़ा है।
दरअसल, बीजेपी और जेडीयू ने तय किया है कि वह आपस में 243 सीटों का बंटवारा करेंगे। इसके बाद जेडीयू अपने कोटे से जीतन राम मांझी की पार्टी हम और बीजेपी रामविलास पासवान की पार्टी एलजेपी को टिकट देगी।
एलजेपी 42 सीटों से कम पर तैयार नहीं थी। अगर बीजेपी एलजेपी की मांग मान लेती तो उसे खुद 100 से कम सीटों पर प्रत्याशी उतारने का मौका मिलता। वहीं दूसरी तरफ जेडीयू किसी भी सूरत में एलजेपी के लिए सीटें छोड़ने को तैयार नहीं थी। आखिरकार एलजेपी गठबंधन से बाहर हो गई है।
‘राजनीतिक जख्म’ से कराह जाते हैं नीतीश
एलजेपी बिहार में मणिपुर फार्मूला अपना रही है। इसके तहत बिहार चुनाव में एलजेपी एनडीए के घटक दल जेडीयू और हम के खिलाफ प्रत्याशी उतारेगी और बीजेपी के खिलाफ न्यूनतम सीटों पर दोस्ताना मुकाबला करेगी। एलजेपी ने पहले ही साफ कर दिया है कि उसकी दोस्ती बीजेपी से बनी हुई है। चुनाव परिणाम आने के बाद एलजेपी के सभी विधायक बीजेपी की सरकार बनाने में सहयोग और समर्थन करेंगे।
इस फार्मूले का मर्म समझें तो बीजेपी और जेडीयू के बीच अगर आधे का भी बंटवारा होता है तो दोनों के खाते में 122 या 121 सीटें जाएंगी। वहीं एलजेपी 143 सीटों पर प्रत्याशी उतारने की बात कह रही है। इस लिहाज से 21 या 22 सीटों पर बीजेपी और एलजेपी में दोस्ताना मुकाबला हो सकता है।
ऐसी स्थिति में कुल मिलाकर देखें तो बिहार की सभी 243 सीटों पर बीजेपी के प्रत्याशी होंगे। क्योंकि चुनाव बाद एलजेपी के जीते हुए प्रत्याशी बीजेपी को सपोर्ट करेंगे। इसकी घोषणा पहले ही हो चुकी है।
जेडीयू की सीटें कम होने का अनुमान
मणिपुर फार्मूले से बिहार में जेडीयू को सीधा-सीधा नुकसान होगा। क्योंकि हर सीट पर जेडीयू और हम के प्रत्याशी को एलजेपी के प्रत्याशी से भी दो-दो हाथ करना होगा। वहीं बीजेपी के सामने वोट काटने के लिए एलजेपी के उम्मीदवार न के बराबर होंगे। ऐसी स्थिति में चुनाव परिणाम आने के बाद अगर जेडीयू की सीटें कम आती हैं और बीजेपी की सीटें बढ़ जाती हैं तो देखना दिलचस्प होगा कि राज्य में किसका मुख्यमंत्री बनता है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृहमंत्री अमित शाह, बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा कई बार कह चुके हैं कि बिहार में एनडीए की अगुवाई नीतीश कुमार ही करेंगे। लेकिन जेडीयू की सीटें कम होने पर क्या हालात बनते हैं, यह देखने वाली बात होगी।
बीजेपी और जेडीयू में दलित प्रेमी का दिखावा
2015 के विधानसभा चुनाव में आरक्षण पर आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत के बयान से बीजेपी को काफी नुकसान हुआ था। जनता के बीच संदेश गया था कि बीजेपी दलित विरोधी है। इस बार बीजेपी कोई गलती करने के मूड में नहीं है। ठीक उसी तरह नीतीश कुमार भी खुद को दलित प्रेमी देखाने की कोशिश कर रहे हैं।
इसी संदर्भ में उन्होंने दलितों की हत्या होने पर उन्हें सरकारी नौकरी का वादा किया है। इसके अलावा महादलित समाज से आने वाले अशोक चौधरी को जेडीयू का कार्यकारी अध्यक्ष बनाया है। साथ ही महादलितों का सबसे बड़ा चेहरा पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी को अपने साथ खड़ा कर लिया है।
बीजेपी खुद को चिराग पासवान के साथ खड़ा दिखा कर दलित प्रेमी बन रही है। इसके अलावा बीजेपी के इशारे पर केंद्रीय मंत्री रामदास अठावले की महाराष्ट्र में सक्रिय आरपीआई ने बिहार में दस्तक दी है। अठावले देश में दलितों के बड़े नेता माने जाते हैं।
इस खेल में एलजेपी के एनडीए से बाहर होने पर लगता है कि बीजेपी ने उसे मोहरा बनाकर तो यूज नहीं कर लिया है। हालांकि रामविलास पासवान भी मंजे हुए राजनीतिक हैं। उन्होंने भी कुछ सोच समझकर बेटे चिराग को यह फैसला लेने के लिए कहा होगा। क्योंकि बिहार में 2005 के बाद से रामविलास पासवान भी फुल फ्लैश अपनी अपनी राजनीतिक ताकत नहीं दिखा पाए हैं।
उन्होंने तो अपने हिस्से की राजनीति कर ली है, लेकिन बेटे को लंबे समय तक सत्ता की जंग में कायम रखने के लिए एक ठोस आधार जरूर दिलाना चाहेंगे। इस तरह बिहार विधानसभा चुनाव में अब तक सामने आए खेल में यही कहा जा सकता है कि असल जंग बीजेपी बनाम (PM material) जेडीयू की है। बाकी तो बस मोहरे हैं।