पुलिस-राज्य की ओर भारत सीरीज में आप पढ़ चुके हैं कि किस प्रकार पुलिस का बेजा इस्तेमाल किया जाता है। अब आगे। इस 66 साल पुराने राजनीतिक वाकये का जिक्र मैंने इसलिए किया है कि सभी राजनीतिक धाराओं के नेतृत्व को स्वतंत्रता के शुरुआती दौर में लोकतंत्र और पुलिस के सही संबंध के निर्धारण का जरूरी काम करना चाहिए था। ऐसा नहीं होने की स्थिति में राजनीतिक सत्ता-पुलिस सत्ता गठजोड़ उत्तरोत्तर मजबूत होता गया।
नतीजतन, लोकतांत्रिक व्यवस्था के आधारभूत मूल्य एक के बाद एक ध्वस्त होते गए। कई अवसरों पर लगता है कि देश में लोकतंत्र के नाम पर महज़ कंकाल बचा है। सरकारें नागरिक स्वतंत्रताओं/अधिकारों का हनन करने वाले कठोरतम कानून बनाती हैं।
इस कड़ी में 1967 में बना और 2019 में संशोधित आतंकवाद निरोधी कानून (यूएपीए) और उपनिवेशवादी दौर से चला आ रहा कुख्यात राष्ट्र-द्रोह कानून (सेडीशन एक्ट) देखे जा सकते हैं। इन कानूनों का शिकार ज्यादातर समाज का कमजोर तबका और उसके हितों की मुखर वकालत करने वाले राजनीतिक कार्यकर्ता और नागरिक समाज एक्टिविस्ट होते हैं। आंदोलनकारी किसानों, मज़दूरों, छात्रों आदि पर पुलिस गोलीबारी और गिरफ़्तारी की घटनाएं आम बात है।
सांप्रदायिकता की सीढ़ी बना कर सत्ता में आने वाली मौजूदा सरकार और पुलिस के गठजोड़ का फूहड़तम रूप अक्सर सामने आता रहता है। लोगों को बात-बात पर देश-द्रोही और आतंकवादी ठहराया जाता है। केंद्र सरकार के तहत काम करने वाली दिल्ली पुलिस के बारे कहा जाता है कि वह देश की अभिजात और सभ्य पुलिस है।
हाल के दिनों में उसके कुछ कारनामे देखे जा सकते हैं। पुलिस ने 15 दिसंबर 2019 को जामिया मिल्लिया इस्लामिया विश्वविद्यालय के परिसर/पुस्तकालय में धावा बोल कर छात्र-छात्राओं की बेरहमी से पिटाई की और अपमानित किया। शिक्षक होने के नाते मैं महसूस करता हूं कि चोटें छात्र-छात्राओं के शरीर पर ही नहीं, आत्मसम्मान पर भी पड़ी थीं।
कोरोना महामारी के बाद स्थिति सामान्य होने पर नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) विरोधी आंदोलन फिर से सिर न उठा सके, इसकी पेशबंदी दिल्ली पुलिस ने कोरोना-काल में कर दी है। उत्तर-पूर्वी दिल्ली में फरवरी में हुए दंगों को पूर्वनियोजित बताने की दिल्ली पुलिस की स्क्रिप्ट समाज से लेकर अदालत तक सबके सामने खुली है।
दिल्ली के विशेष पुलिस आयुक्त प्रवीर रंजन ने दंगों की जांच करने वाले अधिकारियों को आधिकारिक परिपत्र जारी कर निर्देश दिया है कि वे उत्तर-पूर्वी दिल्ली के दंगों के आरोपियों की गिरफ्तारियां करते वक्त ‘हिंदू-भावना’ को ध्यान में रखें।
यह सही है कि पराकाष्ठा पर पहुंची पुलिस-दमन की किसी घटना-विशेष पर पुलिस सुधारों की चर्चा और प्रयास तेज हो जाते हैं। कुछ सरोकारधर्मी बड़े पुलिस अधिकारी अपने अनुभव के आधार पर ठोस सुझाव देते हैं। फौरी राहत के लिए यह जरूरी है।
आज़ादी से अब तक राज्यों और केंद्र द्वारा गठित कई समितियों और आयोगों ने पुलिस सुधारों पर कई सिफारिशें/उपाय प्रस्तुत किये हैं। इनमें राष्ट्रीय पुलिस आयोग (1977-81) की 8 रपटों पर आधारित महत्वपूर्ण सिफारिशें भी हैं। उच्चतम न्यायालय 2006 में पुलिस सुधारों के बारे में राज्यों और केंद्र को विस्तृत निर्देश जारी कर चुका है। लेकिन मूलभूत समस्या – राजनीतिक सत्ता-पुलिस सत्ता गठजोड़ – ज्यों की त्यों बनी रहती है।
कारण स्पष्ट है, स्वतंत्र भारत की पुलिस व्यवस्था उपनिवेशवादी दौर के पुलिस अधिनियम 1861, और उसके साथ भारतीय दंड संहिता 1862 पर टिकी हुई है। पुलिस अधिनियम और दंड संहिता 1857 के विद्रोह की पृष्ठभूमि में बनाए गए थे, ताकि भारतीय असहमति (डिसेंट) और प्रतिरोध (प्रोटेस्ट) जताने की स्थिति में न रहें। 1857 के बाद भारत का करीब 90 सालों का स्वतंत्रता संघर्ष इन्हीं कानूनों की काली छाया में, और उनके विरुद्ध लड़ा गया था।
ध्यान दे सकते हैं कि नव-उपनिवेशवादी दौर में राजनीतिक सत्ता-पुलिस सत्ता गठजोड़ का उपनिवेशवादी चरित्र बखूबी उभर कर सामने आया है। यह स्वाभाविक है। देश के संसाधनों को बेचने में लगे राजनीतिक-वर्ग को पुलिस चाहिए, ताकि वह विरोधियों को देश-द्रोही बता कर वंचित आबादी के आक्रोश से अपनी सुरक्षा कर सके।
संसाधनों को खरीदने वाली देशी-विदेशी कंपनियों को भी पुलिस चाहिए, ताकि उनके मुनाफे का कारोबार सुरक्षित रूप से चलता रह सके। ‘नए भारत’ में राजनीतिक सत्ता-पुलिस सत्ता गठजोड़ में कारपोरेट सत्ता का नया आयाम जुड़ गया है। देश के नागरिक समाज का वृहद् हिस्सा इस सत्ता-त्रिकोण का मुखर या मौन समर्थक है।
यह अकारण नहीं है। वह नवउपनिवेशवादी लूट से गिरने वाली जूठन खाता है और गाल बजाता है। सवाल है कि क्या नव-उपनिवेशवादी गुलामी के तहत बनने वाला ‘नया भारत’ उपनिवेशित भारत की तरह एक पुलिस-राज्य है?