श्रीकांत सिंह
नई दिल्ली। सत्ता श्रम कानूनों को समाप्त करने पर आमादा है, तो मीडिया मालिक श्रम कानून को मानते ही नहीं। नक्सली भी किसी कानून को नहीं मानते। अंतर सिर्फ इतना है कि एक समूह सरकार का विरोध करने के लिए कानूनों का उल्लंघन करता है तो दूसरा समूह सरकार की शह पर श्रम कानूनों की धज्जियां उड़ा रहा है।
शायद यही वजह है कि चुनाव आते ही कुकुरमुत्तों की तरह छोटे—छोटे अखबार उग आते हैं। उन अखबारों के अधिकतर मालिकों का यही मकसद होता है कि वे बेखौफ होकर गैरकानूनी काम कर सकें। इस तरह के अखबार मालिकों में तमाम बिल्डर भी होते हैं, जो लोगों का पैसा मार कर अखबार की धौंस दिखाने से बाज नहीं आते। उनका सिर्फ एक काम होता है—सरकार की तारीफ करना। सिर्फ इतना करने से वे सरकार की कृपा का पात्र बन जाते हैं।
अगर ऐसा नहीं है तो क्यों सारे के सारे अखबार मालिक सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बावजूद मजीठिया वेजबोर्ड लागू न करने की जुर्रत कर पा रहे हैं। इससे लगता है कि कहीं न कहीं माननीय सुप्रीम कोर्ट के अपमान में सरकार का भी बराबर का हाथ है। इसी को कहते हैं सत्ता और मीडिया मालिकों के गठजोड़ की राजनीति।
लंबी प्रतीक्षा के बाद सुप्रीम कोर्ट ने 19 जून 2017 को मजीठिया अवमानना मामले पर ऐतिहासिक फैसला सुनाया तो न्यूज का भवंरजाल कुछ इस तरह से फैला कि लोग भ्रमित होने लगे। सुप्रीम कोर्ट की वेबसाइट पर फैसले की कॉपी अपलोड होने के बावजूद लोगों का भ्रम दूर नहीं हुआ।
इस वजह से तमाम पत्रकार और गैर पत्रकार अखबार कर्मचारी मायूस हो गए। लेकिन मायूस होने के उतने कारण नहीं थे, जितने कि लोग मायूस हुए। पहली बार मजीठिया मामले को इतनी बड़ी कवरेज मिली और गूगल न्यूज पर मजीठिया अवमानना मामले पर फैसले से संबंधित तमाम न्यूज फ्लैश हुई थीं।
मौखिक तौर भी तमाम भ्रामक बातें फैलने लगी थीं। कोई कह रहा था कि अरुण जेटली ने न्यायमूर्ति रंजन गोगोई से अखबार मालिकों की डील कराई तो कोई कह रहा था कि 16 जून को केंद्र सरकार की ओर से बुलाई गई बैठक में ही सबकुछ सेट करा दिया गया था।
खैर, सुप्रीम कोर्ट का आदेश अपनी जगह पर बरकरार है और बहुत सारी उलझनें भी सुलझा दी गई हैं। अब जरूरत है कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश को ठीक से पढ़ कर उसके अनुरूप अपने हक के लिए लड़ा जाए। फिर भी दिक्कत यह है कि इस मामले को लेकर अखबार कर्मचारियों में एकता का सर्वथा अभाव है।
हमारी विषय सामग्री को वे लोग भी लाइक और शेयर करने से परहेज करते हैं, जिन्हें नौकरी से निकाल दिया गया है। कुछ पत्रकार तो ऐसे भी हैं, जो अखबार मालिकों के पक्ष में बयानबाजी से बाज नहीं आते। पत्रकारों के विघटन को सरकारें, अदालतें और अखबार मालिक बखूबी समझते हैं। तभी तो वे माननीय सुप्रीम कोर्ट के आदेश का उल्लंघन करने की जुर्रत कर पा रहे हैं।