सत्य ऋषि
ऋग्वेद में दो प्रकार के विभाग मिलते हैं- पहला अष्टक क्रम और दूसरा मण्डलक्रम। अष्टक क्रम में समस्त ग्रंथ आठ अष्टकों और प्रत्येक अष्टक आठ अध्यायों में विभाजित है। प्रत्येक अध्याय वर्गों में विभक्त है। समस्त वर्गों की संख्या 2006 है।
इसी प्रकार मण्डलक्रम में समस्त ग्रन्थ 10 मण्डलों में विभाजित है। मण्डल अनुवाक, अनुवाक सूक्त और सूक्त मंत्र या ॠचाओं में विभाजित है। दशों मण्डलों में 85 अनुवाक, 1028 सूक्त हैं। इनके अतिरिक्त 11 बालखिल्य सूक्त हैं। ऋग्वेद के समस्त सूक्तों की ऋचाओं (मंत्रों) की संख्या 10 हजार 600 है।
प्रथम मंडल के प्रथम मंत्र की शुरुआत अग्निदेव की स्तुति से की गई है और कहा गया है कि हे अग्निदेव! हम सब आपकी स्तुति करते हैं। आप जो यज्ञ के पुरोहितों, सभी देवताओं, सभी ऋत्विजों, होताओं और याजकों को रत्नों से विभूषित कर उनका कल्याण करें। मंत्र इस प्रकार है—ॐअग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम्। होतारं रत्नधातमम्।1।
इस मंत्र के पारिभाषिक शब्दों का मतलब इस प्रकार है- यज्ञ: सर्वश्रेष्ठ परमार्थिक कर्म, यज्ञ को एक ऐसा कार्य माना जाता है जिससे परमार्थ की प्राप्ति होती है। पुरोहित: पुरोहित वे लोग होते हैं जो यज्ञ को संपन्न कराते हैं। देवता: सभी को अनुदान देने वाले को देवता कहा जाता है।
ऋत्विज: जो समय के अनुसार और समय के अनुकूल ही यज्ञ का संपादन करते हैं, उन्हें ऋत्विज कहा जाता है। होता: होता वे लोग होते हैं जो यज्ञ में देवों का आवाहन करते हैं। याजक: वह व्यक्ति जो यज्ञ करवा रहा है। रत्न: यहां रत्न से अभिप्राय यज्ञ से प्राप्त फल या लाभ से है।