
Religious politics: धन की एक बड़ी खूबी है कि वह धर्म की तरफ झुकाता है। मोटी तनख्वाहोंं और बैंकों के क्रेडिट कार्ड और रियायती लोन ने कर्मचारियों की पूरी दुनिया ही बदल दी। ऐश्वर्यपूर्ण जीवनयापन करने वाला अभिजात्य युवा धर्म की तरफ झुुकता चला गया।
Religious politics: इक्कीसवीं सदी की राजनीति विशुद्ध धार्मिकता पर टिकी
सोशल मीडिया से…
Religious politics: इक्कीसवीं सदी की राजनीति विशुद्ध धार्मिकता पर टिकी है। कांग्रेस सत्ता पाने के लिए सत्तर साल तक जाति के हरे-नीले और सफेद कार्ड चलती रही। अब नारंगी के सामने सब रंग फीके पड़ चुके हैं। कोई कितने आंदोलन करे, सड़कों पर उतरे, हाय-तौबा करे। चुनाव आएंगे तो राजनीति के दूध में धार्मिकता का नीबूू निचोड़ा जाएगा।
पानी अलग हो और खालिस दूध अलग। विपक्ष इसी पानी में डूबता-उतराता रहेगा। और सत्ता का खालिस पनीर वह खाएगा जिसका नारंगी रंग अधिक गहरा होगा। नब्बे के दशक में आर्थिक उदारीकरण के साथ ही जातिवाद की राजनीति का गीत लिख दिया गया था।
इसे ऐसेे समझा जा सकता है। धन की एक बड़ी खूबी है कि वह आदमी को धर्म की तरफ झुकाता है। आर्थिक सुधार से जैसे ही धन का प्रवाह बढ़ना प्रारंभ हुआ, देश में एक अधिक शक्ति संपन्न अभिजात्य मध्यम वर्ग खड़ा हो गया।
मध्यम वर्ग की भागीदारी
इसी मध्यम वर्ग की कॉरपोरेट सेक्टर, आईटी सेक्टर, बड़े-बड़े मीडिया हाउसेज, मध्यम एवं लघु उद्योग और रिटेल चेन बिजनेस में भागीदारी बढ़ी। इस नए मॉडल ने बड़े पूंजिपतियों और नौकरीपेशा के रिश्तों में कटुता की जगह “मित्र” कमर्चारी पैदा कर दिया।
बात-बात पर हड़ताल करने वाले और मांगों को लेकर आंदोलन करने वाले आक्रोशित युवाओं को बिल्कुल अप्रासांगिक बना दिया गया। मोटी तनख्वाहोंं और बैंकों के क्रेडिट कार्ड और रियायती लोन ने मित्र कर्मचारियों की पूरी दुनिया ही बदल दी।
नया रियल एस्टेट मॉ़डल विकसित हुआ। सस्ती दरों पर बैंकों की मार्फत युवा सोसाइटियों में फ्लैट के मालिक बन गए। कार इंडस्ट्री भी इनकी बदौलत पनपी और लोन की मार्फत इनके फ्लैट के सामने चममचाती कारें खड़ीं हो गईं। निर्बाध धन आने से युवाओं के शौक बढ़े और होटल, रेस्टोरेंट का कारोबार चमकने लगा।
हमारी जीवन शैली
बड़े-बड़े मल्टी स्टोर और ब्रांडेड सामान की चकाचौंध से भरे मॉल्स देखते-देखते हमारी जीवन शैली का हिस्सा बन गए। हेल्थ बीमा ने फाइव स्टार अस्पतालों की एक मजबूत श्रृंखला पैदा कर दी। घटिया सरकारी स्कूलों की जगह अंग्रेजी माध्यम के स्कूल बिजनेस खड़े हो गए।
इस तरक्की के बीच जो सबसे बड़ा बदलाव आया, वह था ऐश्वर्यपूर्ण जीवनयापन करने वाला अभिजात्य युवा धर्म की तरफ झुुकता चला गया। यह मनोवृत्ति है कि जब जीवन में पैसा और सुविधाएं बढ़ती हैं तो भगवान के प्रति लगाव गहरा हो जाता है। क्योंकि कहीं न कहीं मन में यह डर बना रहता है कि जो कमाया है, वह गंवाना न पड़ जाए।
इससे बचने का एक आसान तरीका यही लगता है कि भगवान के प्रति एक श्रद्धा की जाए। पिछले दो तीन दशकों में यही वजह है ज्योतिष का काम दस गुना से ज्यादा बढ़ा है। और मंदिरों में जाने वाले युवाओं की संख्या बेतहाशा बढ़ी है।
धर्म को लेकर लगने वाले नारे
इसी वजह से धर्म को लेकर लगने वाले नारों के प्रति इन लोगों में एकाएक झुकाव पैदा हो गया है। चकाचौंध से भरी नगरी और महानगरीय संस्कृति में पनपा नौजवान तबका यहीं से अपनी जातीय बेड़िया तोड़ना शुरू कर देता।
उसे फिर जाति अच्छी नहीं लगती है और वह धार्मिक हो जाता है। क्योंकि धर्म का अंबर इतना बड़ा और व्यापक है कि इसमें जातियांं छुप जाती हैं। फिर जाति नहीं धर्म अधिक बलवान हो जाता है। इक्कसवीं सदी की दुनिया का यही सच है।
जो राजनीतिक दल ज्यादा धर्म की बातें करता है, स्वाभाविक रूप से नए जमाने का अभिजात्य युवा वर्ग उसकी तरफ आकृष्ट हो जाता है। इस विशुद्ध धर्म की राजनीति को आप नए-नए नामों से पुकार सकते हैं। कोई फर्क नहीं पड़ता, लेकिन आज के दौर में राजनीति का यही दस्तूर है।
चमत्कारों पर ब्रांडिंग की छाप
इसलिए अपने देश में स्थानीय निकाय से लेकर लोकसभा तक एक ही कार्ड चल रहा है और लोग इसे ही चमत्कार मान बैठे हैं। फर्क इतना ही नए चमत्कार पर कॉरपोरेट की ब्रांडिंग की छाप कुछ ज्यादा है। कांग्रेस ने जो तरक्की के लिए मार्ग बनाने के लिए जो गड्ढे खोदे, वह उसी में गिरकर सिसक रही है।
उसके काल की उपलब्धियां अब नाकामी बन चुकी हैं या बना दी गई हैं। कांग्रेस खुद की बनाई दरिया में डूब मरने के लिए आमादा है। आर्थिक उदारीकरण का कांग्रेस का दांव उसकी तमाम गलितयों से उसके लिए उलटा पड़ा है।
मुकेश श्रीराम की फेसबुक वाल से साभार