सत्य ऋषि
सत्यार्थ प्रकाश आर्य समाज का प्रमुख ग्रन्थ है। इसकी रचना महर्षि दयानन्द सरस्वती ने 1875 ई. में हिन्दी में की थी। ग्रन्थ की रचना का कार्य स्वामी जी ने उदयपुर में किया। लेखन-स्थल पर सत्यार्थ प्रकाश भवन बना है। प्रथम संस्करण का प्रकाशन अजमेर में हुआ था। उन्होने 1882 ई. में इसका दूसरा संशोधित संस्करण निकाला। अब तक इसके 20 से अधिक संस्करण अलग-अलग भाषाओं में प्रकाशित हो चुके हैं।
सत्यार्थ प्रकाश की रचना का प्रमुख उद्देश्य आर्य समाज के सिद्धान्तों का प्रचार-प्रसार था। इसके साथ-साथ इसमें ईसाई, इस्लाम एवं अन्य कई पंथों और मतों का खंडन भी है। उस समय हिंदू शास्त्रों का गलत अर्थ निकाल कर हिंदू धर्म और संस्कृति को बदनाम करने की साजिश रची जा रही थी। इसी को ध्यान में रखकर महर्षि दयानन्द ने इसका नाम सत्यार्थ प्रकाश (सत्य+अर्थ+प्रकाश) अर्थात् सही अर्थ पर प्रकाश डालने वाला (ग्रन्थ) रखा।
समाज सुधारक स्वामी दयानन्द सरस्वती की इस रचना का मुख्य प्रयोजन सत्य को सत्य और मिथ्या को मिथ्या ही कहना रहा है। यद्यपि हिंदू जीवन व्यक्ति और समाज, दोनों को समक्ष रखकर चलता है, तो भी हिन्दुओं में प्राय: देखा जाता है कि समष्टिवादी की अपेक्षा व्यक्तिवादी प्रवृत्ति अधिक है।
ध्यान में लीन उपासक के समीप यदि इसी समाज का कोई व्यक्ति तड़प भी रहा हो तो वह उसे ध्यानभंग का कारण ही समझेगा। यह कदापि नहीं कि वह भी उसी समाज का एक अंग है। फिर उन्नीसवीं सदी में अंग्रेजी सभ्यता का प्रभाव बढ़ गया था। अंग्रेजी प्रचार के परिणाम स्वरूप हिंदू ही अपनी संस्कृति को हेय मानने लगे और पश्चिम का अन्धानुकरण करने में गर्व समझने लगे थे।
भारतीयों को भारतीयता से भ्रष्ट करने की मैकाले की योजना के अनुसार, हिन्दुओं को पतित करने के लिए अंग्रेजी शिक्षा प्रणाली पर जोर था। विदेशी सरकार और अंग्रेजी समाज अपने एजेंट पादरियों के जरिये ईसाइयत का झंडा देश के एक कोने से दूसरे कोने तक फहराने के लिए करोड़ों रुपये खर्च कर रहे थे।
हिंदू अपना धार्मिक और राष्ट्रीय गौरव खो चुके थे। 144 हिंदू प्रति दिन मुसलमान बनाए जा रहे थे और ईसाई तो इससे कहीं अधिक। ये पादरी रंगीला कृष्ण और सीता का छिनाला जैसी सैकड़ों गंदी पुस्तिकाएं बाँट रहे थे। इन निराधार लांछनों का उत्तर देने के बजाय ब्रह्म समाज वालों ने उलटे राष्ट्रीयता का ही विरोध कर दिया। वेद आदि की प्रतिष्ठा करना तो दूर, भर पेट उनकी निंदा की।
स्वामी दयानन्द ने आर्य समाज और सत्यार्थ प्रकाश के जरिये इन घातक प्रवृत्तियों को रोका। उन्होंने यहां तक लिखा-“स्वराज्य (स्वदेश) में उत्पन्न हुए (व्यक्ति) ही मंत्री होने चाहिए। परमात्मा हमारा राजा है। वह कृपा करके हमको राज्याधिकारी करे।” इसके साथ ही उन्होंने आर्य सभ्यता एवं संस्कृति से प्रखर प्रेम और वेद, उपनिषद आदि आर्य सत्साहित्य और भारत की परम्पराओं के प्रति श्रद्धा पर बल दिया।
स्व-समाज, स्व-धर्म, स्व-भाषा और स्व-राष्ट्र के प्रति भक्ति जगाने और तर्क प्रधान बातें करने के कारण उत्तर भारत के पढ़े लिखे हिंदू धीरे-धीरे इधर खिंचने लगे। इस प्रकार आर्य समाज सामाजिक और शैक्षणिक क्षेत्रों में लोकप्रिय हो गया।
सत्यार्थ प्रकाश में चौदह समुल्लास (अध्याय) हैं। उनमें जिन विषयों पर विचार किया गया वे हैं- बाल-शिक्षा, अध्ययन-अध्यापन, विवाह एवं गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यास-राजधर्म, ईश्वर, सृष्टि-उत्पत्ति, बंध-मोक्ष, आचार-अनाचार, आर्यावर्तदेशीय मतमतान्तर, ईसाई मत और इस्लाम।
इसकी भाषा के संबंध में दयानन्द ने 1882 में इस ग्रन्थ के दूसरे संस्करण में स्वयं लिखा-“जिस समय मैंने यह ग्रन्थ बनाया था, उस समय.संस्कृत भाषण करने और जन्मभूमि की भाषा गुजराती होने के कारण मुझे इस भाषा (हिंदी) का विशेष परिज्ञान न था। इससे भाषा अशुद्ध बन गई थी। अब इसको भाषा-व्याकरण-अनुसार शुद्ध करके दूसरी बार छपवाया है।”
सत्यार्थ प्रकाश के प्रत्येक समुल्लास में वर्णित विषय इंगित के गए हैं। ईश्वर के ओंकारादि नामों की व्याख्या, सन्तानों की शिक्षा, ब्रह्मचर्य, पठनपाठन व्यवस्था, सत्यासत्य ग्रन्थों के नाम और पढ़ने-पढ़ाने की रीति, विवाह और गृहस्थाश्रम का व्यवहार, वानप्रस्थ और संन्यासाश्रम की विधि, राजधर्म, वेद एवं ईश्वर, जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय, विद्या, अविद्या, बन्ध और मोक्ष की व्याख्या, आचार, अनाचार और भक्ष्याभक्ष्य विषय, आर्य्यावर्त्तीय मतमतान्तर का खण्डन मण्डन, चार्वाक, बौद्ध और जैन मत, ईसाइयत (बाइबल), मुसलमानों का मत (कुरान)। आगे हम सत्यार्थ प्रकाश पर विस्तार से चर्चा करेंगे। तब तक के लिए सत्य को प्रणाम।