
क्या पुलिसकर्मी अपने कार्यों, शक्तियों और कर्तव्यों का उपयोग सामान्य जनता और मौजूदा सरकार के निष्पक्ष सेवक के रूप में करेंगे? किसी भी पुलिसकर्मी को उसके कार्यों या शक्तियों या पुलिस संसाधनों का उपयोग करते वक्त किसी भी राजनीतिक पार्टी या हित-समूह अथवा वैसी पार्टी या समूह के किसी भी सदस्य को बढ़ावा देने या कमतर आंकने का न आदेश दिया जा सकता है और न बाध्य किया जा सकता है।
लोकतंत्र में पुलिस की भूमिका पर संयुक्तराष्ट्र संघ का दिशा-निर्देश है कि पुलिस का कर्तव्य है कि वह बिना किसी डर या पक्षपात के समान रूप से सभी राजनीतिक पार्टियों, व्यक्तियों और संगठनों के अधिकारों को बनाए रखे और सभी को समान रूप से संरक्षण प्रदान करे।
उपनिवेशवादी, राजशाही और तानाशाही व्यवस्था मूलत: पुलिस-राज्य होती है। लेकिन लोकतांत्रिक व्यवस्था में भी समय-समय पर पुलिस-राज्य की प्रवृत्तियों का उभार देखने को मिलता है। पुलिस- राज्य में सत्तारूढ़ पार्टी/सरकार पुलिस-बल का इस्तेमाल विपक्षी नेताओं, असहमत नागरिकों समाज एक्टिविस्टों/बुद्धिजीवियों को उत्पीड़ित करने और नागरिक स्वतंत्रताओं/मानवाधिकारों का हनन करने में करती है।
संयुक्तराष्ट्र संघ ने लोकतंत्र में पुलिस की भूमिका के बारे में स्पष्ट दिशा-निर्देश जारी किए हैं। समय-समय पर संयुक्तराष्ट्र संघ और कुछ स्वयंसेवी संस्थाओं की ओर से लोकतंत्र और नागरिक अधिकारों की कसौटी पर विभिन्न देशों में पुलिस की भूमिका के बारे में रपटें प्रकाशित होती हैं। जिनसे पता चलता है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था वाले देशों में भी राजनीतिक-वर्ग (पोलिटिकल क्लास) अपनी सत्ता कायम रखने के लिए पुलिस-बल का बेजा इस्तेमाल करता है।
राजनीतिक सत्ता और पुलिस सत्ता के बीच गठजोड़ होता है, तो पुलिस मनमानी का एक स्वायत्त क्षेत्र भी विकसित कर लेती है। इस क्षेत्र में तस्करों/माफिया के साथ मिली-भगत से लेकर हफ्ता-उगाही तक और विचाराधीन कैदियों की हिरासत में मौत से लेकर ‘बदमाशों’ के एनकाउंटर तक अनेक तरह के पुलिस-कृत्य सामने आते हैं।
पुलिस की मनमानी का सबसे बुरा असर समाज के कमजोर तबकों-अल्पसंख्यक, आदिवासी, दलित, महिलाओं आदि पर पड़ता है। पुलिस का सत्ता-स्वार्थ के लिए इस्तेमाल करने वाली सरकारें पुलिस की मनमानियों की अनदेखी करती हैं। कानून में पुलिस के लिए लगभग दंड-मुक्ति (इम्प्युनिटी) का प्रावधान होने से पुलिस-दमन का चक्र कभी थमता नहीं है।
पूर्व-उपनिवेशित देशों की लोकतांत्रिक व्यवस्था में पुलिस-राज्य की प्रवृत्तियां स्वतंत्र देशों के मुकाबले कहीं ज्यादा देखने को मिलती हैं। इसका कारण है कि पूर्व-उपनिवेशित देशों का पुलिस-तंत्र उपनिवेशवादी शासन की देन है। पुलिस और उसकी खुफिया शाखा उस दौर में उपनिवेशवादी व्यवस्था को मजबूती से टिकाए रखने का काम करती थी।
समाज में कानून-व्यवस्था बनाए रखने का दायित्व दूसरे स्थान पर आता था। कानून-व्यवस्था बनाए रखने की पुलिस की भूमिका भी अंतत: उपननिवेशवादी सत्ता की मजबूती से ही जुड़ी होती थी। क्योंकि कानून-व्यवस्था का वास्तविक उद्देश्य जनता के मानस में उपनिवेशवादी सत्ता के प्रति भय और निष्ठा पैदा करना था।
उपनिवेशवादी सत्ता अपने शासन का औचित्य जताने के लिए निष्पक्ष न्याय का दावा करती थी। लेकिन किसी भी मामले की जांच के दौरान दंड-प्रक्रिया संहिता की धाराएं निश्चित करने में पुलिस की पक्षपाती भूमिका निष्पक्ष न्याय की संभावना ख़त्म कर देती थी। दरअसल, दंड-प्रक्रिया संहिता की धाराओं का निर्माण ही आधिपत्य कायम रखने की नीयत से किया जाता था।
प्रत्येक देश के स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान नेताओं और जनता के प्रति पुलिस का रवैया दमन और ज़ुल्म भरा होता था। उपनिवेश रहे प्रत्येक देश का इतिहास पुलिस-दमन, पुलिस-ज़ुल्म और पुलिस-भ्रष्टाचार की दहला देने वाली अनेक घटनाओं से भरा है। इस तथ्य के मद्देनज़र यह जरूरी था कि उपनिवेशवाद से स्वतंत्र होने वाले देशों को लोकतंत्र की संगति में एक स्वतंत्र और निष्पक्ष पुलिस-प्रणाली का निर्माण करना चाहिए था।
अफसोस की बात है कि भारत में यह सबसे जरूरी काम नहीं किया गया। इस सच्चाई को रेखांकित करते हुए डॉ. राममनोहर लोहिया ने 1967 में लिखा, सच्चाई यह है कि कांग्रेस सरकार ने अपने को ब्रिटिश शासन के उत्तराधिकारी के रूप में स्थापित करने की उत्सुकता में बजाय लोकप्रिय क्रांति का उत्तराधिकारी बनने के, आंख बंद कर उन सब कानूनों को ज्यों का त्यों स्वीकार कर लिया जिन्हें ब्रिटिश सरकार ने भारतीयों को गुलाम रखने के लिए बनाया था।
लोहिया उपनिवेशवाद से मुक्ति दिलाने वाले देशव्यापी स्वतंत्रता आंदोलन को लोकप्रिय क्रांति कहते थे, जिसमें क्रांतिकारियों की भूमिका शामिल थी। 1967 में बनी गैर-कांग्रेसी सरकारों को लोहिया ने ‘नागरिक स्वतंत्रताओं और दंड-प्रक्रिया संहिता’ के संदर्भ में कई महत्वपूर्ण सुझाव दिए। एक धुर लोकतंत्रवादी होने के नाते लोहिया ने स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान और स्वतंत्रता के बाद पुलिस-तंत्र से जुड़ी समस्याओं और उनके समाधान पर लोकतंत्र और नागरिक अधिकारों के मद्देनज़र गहराई से विचार किया है।
समाजवादी होने के नाते स्वाभाविक रूप से इस समस्या पर उन्होंने विशाल गरीब भारत के पक्ष से विचार किया है। स्थापित पुलिस-तंत्र में भी वे कांसटेबलरी के अधिकारों और सुविधाओं के हिमायती थे। वे शायद देश के अकेले राजनेता थे जिसने 1967 के दिल्ली पुलिस आंदोलन का समर्थन किया था।
उस आंदोलन में दिल्ली पुलिस के सिपाहियों ने विभाग के गैर-राजपत्रित कर्मियों की यूनियन बनाने के अधिकार की मांग करते हुए राष्ट्रपति भवन और प्रधानमंत्री निवास को घेर लिया था। लोहिया ऐसी पुलिस की परिकल्पना करते हैं जो गरीब व कमजोर को नागरिक समझ कर व्यवहार करे। लोहिया इसे एक राजनीतिक समस्या मानते थे, जिसका समाधान स्वतंत्र भारत की राजनीतिक पार्टियों और नेतृत्व को सैद्धांतिक निष्ठा के साथ करना चाहिए था।
—जारी, शेष अगले आलेख में।