
पिछले स्वतंत्रता दिवस के ‘समय संवाद’ और उसके आगे-पीछे हमने जो लिखा, इस स्वतंत्रता दिवस पर उससे अलग कुछ कहने के लिए नहीं है। कहना एक ही बार ठीक रहता है। भले ही वह स्वतंत्रता जैसे मानव-जीवन और मानव-सभ्यता के संभवतः सर्वोपरि मूल्य के बारे में हो। दोहराव के भय से इस बार का ‘समय संवाद’ हम नहीं लिखना चाहते थे। फिर सोचा कि शासक-वर्ग और उसका प्रस्तोता मीडिया दिन-रात दोहरावों की झड़ी लगाए रहते हैं, तो हमें भी किंचित दोहराव के बावजूद अपनी बात कहनी चाहिए।
आइए, भारी सुरक्षा घेरे में गांधी के आखिरी आदमी से बहुत दूर और ऊंचे आयोजित छियासठवें स्वतंत्रता दिवस के मौके पर देश की आजादी के बारे में कुछ चर्चा और सवाल करें। इस आशा के साथ कि सड़सठवें साल में देश की आजादी पर आए संकट को समझा जाएगा और उसका मुकाबला हो पाएगा।
जिस आजादी पर हासिल होने के दिन से ही अधूरी होने का ठप्पा लगा हो, हर स्वतंत्रता दिवस पर यह सुनिश्चित करना जरूरी है कि वह उत्तरोत्तर पूर्णता और मजबूती की ओर अग्रसर है। अगर किसी वर्ष कोई ऐसी घटना या फैसला सरकार, राजनीति अथवा नागरिक-समाज के स्तर पर हो गया हो, जिससे आजादी का अवमूल्यन हुआ हो और वह खतरे में पड़ी हो, तो स्वतंत्रता दिवस के मौके पर यह सुनिश्चित किया जाए कि वह गलती स्वीकार करके उसे ठीक कर लिया गया है।
स्वतंत्रता दिवस यह देखने का भी मौका होता है कि वैचारिक और नीतिगत मतभेदों के बावजूद आजादी को पूर्ण और मजबूत बनाने के दायित्व पर सभी राजनीतिक पार्टियां, संगठन और नागरिक समाज एकमत हैं। भारत जैसे विशाल और बहुलताधर्मी देश में अलग-अलग समूहों की अपने हितों की चिंता वाजिब है, लेकिन इस मौके पर हम यह देखें कि समग्रता में उससे देश की आजादी की काट न हो।
यह सुनिश्चित करें कि बुद्धिजीवी खास तौर पर सावधान हैं, ताकि नई पीढ़ी आजादी का मूल्य भली-भांति समझ कर अपना कर्तव्य निर्धारित करती और निभाती चले। स्वतंत्रता दिवस और उसके आगे-पीछे आजादी के तराने गाने, तिरंगा लहराने और शहीदों के गुणगान का तभी कोई अर्थ है। स्वतंत्रता दिवस पर हम यह सुनिश्चित करें कि देश की आजादी को सच्चा प्यार करके ही उसके लिए कुर्बानी देने वालों का सच्चा सम्मान किया जा सकता है।
सवाल है कि क्या प्रत्येक आने वाले स्वतंत्रता दिवस पर देश की आजादी पूर्णता और मजबूती की तरफ बढ़ती है? गलतियां अगर होती हैं तो क्या उनसे सीख लेने की कोई नजीर सामने आती है? आजादी के प्रति सभी सरकारों, राजनीतिक पार्टियों और नागरिक-समाज का साझा संकल्प है? अपने हितों की चिंता करने वाले समूह समग्रतः आजादी की रक्षा का ध्यान करके चलते हैं? क्या देश के बुद्धिजीवी अपनी भूमिका में मुस्तैद हैं? क्या नई पीढ़ी आजादी के प्रति अपना कर्तव्य समझती है? क्या हम शहीदों का सच्चा सम्मान करते हैं?
बिना गहरी जांच-पड़ताल के पता चल जाता है कि ऐसा नहीं है। ऐसा नहीं होने की चिंता भी ज्यादातर नेताओं से लेकर नागरिक-समाज तक नहीं दिखाई देती। बल्कि कह सकते हैं कि पिछले 25 स्वतंत्रता दिवसों पर लाल किले से नवसाम्राज्यवादी गुलामी का परचम फहराया जाता रहा है। लाल किले के भाषण में बच्चों से लेकर नौजवानों तक आजादी को पूर्ण और मजबूत बनाने का संदेश नहीं दिया जाता। ज्यादातर मुख्यधारा राजनीतिक पार्टियां, नागरिक-समाज और बुद्धिजीवी आजादी के इस अवमूल्यन में बेहिचक शामिल हैं।