
Spirit talk: आज हम विज्ञान के बिना एक कदम नहीं चल सकते। क्योंकि विज्ञान ने भौतिक जीवन को सरल और सुविधाजनक बनाया है। विज्ञान एक ऐसा विशेष ज्ञान है जो भौतिक पदार्थों के बारे में सूक्ष्म जानकारी देता है। लेकिन कुछ तो है जो इन भौतिक पदार्थों से परे है। सूक्ष्म से भी सूक्ष्मतर है। उसी सूक्ष्मतर की ओर संकेत करता है अध्यात्म। यानी आत्मा की बात।
Spirit talk: विश्व के मूल में भौतिक पदार्थों से परे
सत्यऋषि
Spirit talk: क्या संसार ईश्वर की इच्छा की परिणति है? या विश्व के मूल में पदार्थ एवं शक्ति के अलावा कुछ भी नहीं? ये दो विचार परस्पर विरोधी लगते हैं। लेकिन विरोधी हैं नहीं। ये ठीक उसी प्रकार से हैं जैसे रेल की पटरियां हमें गंतव्य तक पहुंचा तो देती हैं लेकिन खुद न आपस में मिलती हैं और न ही कहीं पहुंचती हैं।
कुल मिला कर मूर्त सत्ता के बारे में जानकारी विज्ञान देता है। और अमूर्त सत्ता की बात करता है अध्यात्म। लेकिन धर्म दर्शन विज्ञान और अध्यात्म को एक दूसरे से मिलाने की कोशिश करता लगता है। लेकिन यह तो ठीक वैसे ही है, जैसे आप अंधकार को प्रकाश से मिलाने की कोशिश करें।
जीव में सुख-दुःख की अनुभूति, अजीव में नहीं
विचारकों की मानें तो, जीव चेतन है। अजीव अचेतन है। जीव का स्वभाव चैतन्य है। अजीव का स्वभाव जड़त्व अथवा अचैतन्य है। जो जानता है वह जीवात्मा है। जो नहीं जानता वह अनात्मा है। जीव आत्मा सहित है। अजीव में आत्मा नहीं है। जीव सुख-दुःख की अनुभूति करता है। अजीव को सुख-दुःख की अनुभूति नहीं होती।
स्मृति, बुद्धि और मस्तिष्क के समस्त व्यापार ‘चेतना’ नहीं हैं। पदार्थ के रूपांतर से स्मृति एवं बुद्धि के गुणों को उत्पन्न किया जा सकता है। मगर चेतना उत्पन्न नहीं की जा सकती।
एक मान्यता के अनुसार, परम चैतन्य से ही जड़ जगत की सृष्टि होती है। तो दूसरी मान्यता इसके विपरीत भौतिक द्रव्य की ही सत्ता को स्वीकार करती है।
सिर्फ भौतिक पदार्थ की सत्ता मानता है विज्ञान
विज्ञान भी यही मानता है कि भौतिक पदार्थ के अतिरिक्त अन्य किसी की सत्ता नहीं है। बुद्धि एवं मन की भांति चेतना भी ‘स्नायुजाल की बद्धता’ अथवा ‘विभिन्न तंत्रिकाओं का तंत्र’ है। जो अन्ततः अणुओं एवं आणविक क्रियाशीलता का परिणाम है। धर्म दर्शन कहता है, दोनों की भिन्न सत्ता है।
दरअसल, जिस वस्तु का जैसा उपादान कारण होता है, वह उसी रूप में परिणित होता है। चेतन के उपादान अचेतन में नहीं बदल सकते। अचेतन के उपादान चेतन में नहीं बदल सकते। न कभी ऐसा हुआ है, न हो रहा है और न होगा कि जीव अजीव बन जाए या अजीव जीव बन जाए।
पौराणिक कथाओं की बात
लेकिन पौराणिक कथाओं में इसके विपरीत उदाहरण मिलते हैं। रामायण में उल्लेख है कि श्राप से अहिल्या पत्थर बन गई थीं और भगवान राम के चरण का स्पर्श होते ही उनमें चैतन्य आ गया। यह तो एक उदाहरण है। हमारे पौराणिक ग्रंथों में ऐसे उदाहरणों की भरमार है। इस पर विज्ञान भरोसा नहीं करता। क्योंकि अब ऐसे उदाहरण सामने नहीं आते।
फिर भी धार्मिक मान्यताओं का अपना अलग नजरिया है। आत्मा अमूर्त तत्व है। इंद्रियों का वह विषय नहीं है। इंद्रियां उसे जान नहीं पातीं। इसलिए इंद्रियों की एक सीमा होती है। इसलिए आत्मा के अस्तित्व को नकारा नहीं जा सकता।
याददास्त के बावजूद कंप्यूटर चेतनायुक्त नहीं
जड़ पदार्थ का रूपान्तरण ऊर्जा (प्राण), स्मृति, कृत्रिम प्रज्ञा एवं बुद्धि में संभव है, लेकिन इनमें चैतन्य नहीं होता। कंप्यूटर चेतनायुक्त नहीं है। कंप्यूटर को यह चेतना नहीं होती कि वह है या वह कार्य कर रहा है। क्योंकि कम्प्यूटर मनुष्य की चेतना से प्रेरित होकर कार्य करता है।
उसे सुख-दुःख की अनुभूति नहीं होती। उसे स्व-संवेदन नहीं होता। ‘मैं हूँ’, ‘मैं सुखी हूँ’, ‘मैं दुःखी हूँ’। शरीर को इस प्रकार के अनुभवों की प्रतीति नहीं होती। इस प्रकार के अनुभवों की जिसे प्रतीति होती है, वह शरीर से भिन्न है।
आत्मा में विशेष गुण चैतन्य
Spirit talk: आत्मा में चैतन्य नामक विशेष गुण है। आत्मा में जानने की शक्ति है। आत्मा के द्वारा जीव को अपने अस्तित्व का बोध होता है। ज्ञान का मूल स्रोत आत्मा ही है।
वास्तव में, विज्ञान और अध्यात्म की अपनी अपनी सीमाएं हैं। फिर भी दोनों की मूलभूत अवधारणाओं में सामंजस्य स्थापित किया जा सकता है। यदि दोनों अपने-अपने आग्रह छोड़ दें तो दोनों के बीच एक तारतम्य पैदा किया जा सकता है। आप आत्मा में भरोसा करते हैं या विज्ञान में? कमेंट करके हमें भी बता सकते हैं।