Superbug in 2023: अभी हम कोविड काल की चुनौतियों से उबर भी नहीं पाए हैं कि एक नई चुनौती की चर्चा जोरों पर है। चर्चा है कि क्या सुपरबग 2023 में एक बड़ी चुनौती बन सकता है? ठीक वैसी ही चुनौती जैसी कोविड काल में पैदा हुई थी। क्या यह एक नए तरह का खतरा है? क्योंकि अमेरिका में इसका संक्रमण शुरू भी हो चुका है। भारत भी सुपरबग से प्रभावित देशों में एक है। आज चर्चा इसी पर।
Superbug in 2023: एक नए तरह का खतरा है सुपरबग
इंफोपोस्ट डेस्क
Superbug in 2023: दरअसल, सुपरबग हर साल दुनियाभर में 13 लाख लोगों की जानें ले रहा है। मेडिकल जर्नल लांसेट में प्रकाशित स्टडी में बताया गया है कि पारंपरिक एंटीबायोटिक और एंटी फंगल दवाएं इस पर बेअसर साबित हो रही हैं। ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी और इंस्टिट्यूट ऑफ हेल्थ मेट्रिक्स एंड इवैलुएशन ने 204 देशों के 471 मिलियन रिकॉर्ड्स का अध्ययन कर मौतों का यह आंकड़ा सामने रखा है।
भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद यानी आईसीएमआर की एएमआर यानी एंटीमाइक्रोबायल रजिस्टेंस पहल को लीड करने वाली डॉ. कामिनी वालिया के मुताबिक यह स्टडी महत्वपूर्ण है। क्योंकि इससे पहली बार मौतों के संदर्भ में एएमआर की गंभीरता का पता चलता है। इसने दक्षिण एशिया के लिहाज से चिंताजनक स्थिति बताई है। क्योंकि 2019 में 13 लाख एएमआर मौतों में 30 प्रतिशत यानी 3.9 लाख मौतें दक्षिण एशिया में हुई हैं।
इस बैक्टीरिया पर काम नहीं करतीं दवाएं
Superbug in 2023: इसलिए यह समझना जरूरी है कि आखिर सुपरबग क्या होता है? जब बैक्टीरिया, वायरस, फंगस या पैरासाइट्स समय के साथ बदलते हैं तो उन पर दवाएं काम नहीं करतीं। इन हालात में संक्रमण को दूर करना काफी मुश्किल हो जाता है। सुपरबग को एंटीबायोटिक रेसिस्टेंट बैक्टीरिया भी कहते हैं। यानी ऐसा बैक्टीरिया जो दवा से नहीं मरता।
इस संदर्भ में थोड़ी चर्चा कोरोना काल की जरूरी है। इस अवधि में जिसे कोरोना का संक्रमण हो जाता था और वह बच भी जाता था, तो समझिए कि उसे कुदरत ने ही टीका लगा दिया है। अब कोरोना उसका कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता। मतलब, उस व्यक्ति में कोविड19 वायरस से लड़ने की क्षमता कुदरती तौर पर विकसित हो गई है। और वह व्यक्ति कोरोना रजिस्टेंट हो चुका है। यही बात सुपरबग बैक्टीरिया पर भी लागू होती है।
साधारण बैक्टीरिया कैसे बन जाता है सुपरबग?
मान लीजिए आप सर्दी जुकाम या खांसी के संक्रमण से पीड़ित हैं। डॉक्टर ने आपकी जांच की और पांच दिन की दवा लिख दी। लेकिन आप तीन दिन में ही ठीक हो गए। क्योंकि डॉक्टर की दवा ने 90 प्रतिशत बैक्टीरिया को मार दिया। बचे 10 प्रतिशत बैक्टीरिया। उनकी संख्या इतनी कम है कि आपको लगता है कि आप ठीक हो गए हैं। तो आप सोचने लगते हैं कि अब दवा क्यों खाना है? अच्छा खासा भले चंगे हैं जो। अब ये बचे हुए 10 प्रतिशत बैक्टीरिया ठीक उसी प्रकार दवा रजिस्टेंट हो गए हैं, जिस प्रकार कोविड का मरीज कोरोना रजिस्टेंट हो गया था।
ये 10 प्रतिशत बैक्टीरिया आपके शरीर में रहते हैं और अनुकूल परिस्थितियों में अपनी संख्या बढ़ाते हैं। जब कभी आप दोबार बीमार पड़ेंगे तो डॉक्टर की लिखी दवाएं काम नहीं करेंगी। क्योंकि इन बैक्टीरिया ने डॉक्टर की दवाओं से लड़ना सीख लिया है। इस बार डॉक्टर ने कोई और दवा लिखी। आपने फिर वही गलती की। फिर 10 प्रतिशत बैक्टीरिया बच गए और अधिक मजबूत हो गए। आमतौर पर यह क्रम चलता रहता है। और अंत में सभी दवाओं पर विजय प्राप्त करके ये साधारण बैक्टीरिया सुपरबग बन जाते हैं।
तब कैसे होता था मरीजों का इलाज?
मीडिया रिपोर्टों की बात करें, तो 2023 में सुपरबग एक करोड़ लोगों की जान ले सकता है। क्योंकि सुपरबग पर एंटीबायोटिक दवाएं काम ही नहीं करतीं। और यदि सुपरबग फैला तो देश दुनिया की अच्छी से अच्छी एंटीबायोटिक दवाएं धरी की धरी रह जाएंगी। तो फिर लोगों का इलाज कैसे होगा? जब एंटीबायोटिक दवाओं की खोज नहीं हुई थी, तब मरीजों का इलाज कैसे किया जाता था? इसे समझने के लिए चिकित्सा जगत के इतिहास में जाना होगा।
एंटीबायोटिक्स की खोज लगभग सौ साल पहले लुई पाश्चर ने की थी, जिसने चिकित्सा के क्षेत्र में क्रांति ला दी थी। लेकिन आज फिर हम सौ साल पीछे खड़े प्रतीत हो रहे हैं। क्योंकि सुपरबग ने एंटीबायोटिक्स पर विजय पा ली है। इसलिए आने वाले वर्षों में एंटीबायोटिक्स के विकल्प खोजने ही होंगे। चंगेज खां ने अपनी सेना के लिए एक व्यवस्था की थी, जो एंटीबायोटिक्स का विकल्प जरूर था। क्योंकि उस समय एंटीबायोटिक्स की खोज ही नहीं हुई थी। क्या किया था उसने।
सेना के साथ कीड़े लेकर चलता था चंगेज खां
Superbug in 2023: चंगेज खां की सेना जब चलती थी तो अपने साथ खतरनाक कीड़े लेकर चलती थी। यही कीड़े उस समय बैक्टीरियल इंफेक्शन दूर करने के काम आते थे। ये कीड़े घायल सैनिकों के घावों के मवाद और संक्रमित कोशिकाओं को खा जाते थे। लेकिन ये कीड़े स्वस्थ कोशिकाओं को नहीं खाते थे। ये तब का विज्ञान था।
होता यह था कि जब कोई सैनिक घायल हो जाता था और उसका घाव पकने लगता था, तब चंगेज खां के वैद्य उन्हीं कीड़ों के लारवा डालकर घाव पर पट्टी कर देते थे। इस प्रकार संक्रमित कोशिकाओं को कीड़ा खा जाता था और सैनिक का घाव ठीक हो जाता था। लेकिन ये बायोलाजिकल प्रॉसेस था, केमिकल प्रॉसेस नहीं था। पहले भी मृत कोशिकाओं को साफ करने के लिए कीड़ों का इस्तेमाल किया जाता रहा है। तो क्या हम फिर उसी युग में चले जाएंगे? लेकिन अब वह लुप्त हो चुका पुराना फार्मूला क्या काम आएगा? फेफड़े में संक्रमण हो जाएगा, तो वहां कीड़े तो काम आएंगे नहीं। ऐसे में क्या होने जा रहा है? आप भी अनुमान लगाएं।