कारपोरेट भारत पर जल्दी से जल्दी डिजिटल हो जाने का नशा सवार है। ऐसे माहौल में रघुवंश बाबू ने 10 सितंबर को एक सादे कागज़ पर हाथ से लिख कर अपना इस्तीफ़ा राष्ट्रीय जनता दल (राजद) अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव को भेजा। लालू यादव ने भी सादे कागज़ पर हाथ से ही जवाब लिख भेजा।
जिस कारपोरेट भारत के राजनीतिक व्यापार के लिए प्रतिदिन करोड़ों रुपये विज्ञापन कंपनियों की मार्फ़त प्रचार पर फूंक दिए जाते हैं, वहां पर इस घटना को एक सटीक टिप्पणी की तरह पढ़ा जा सकता है। ये ख़त बताते हैं कि गरीबी और बेरोजगारी के बोझ तले दबे देश की राजनीति/गवर्नेंस में किफायत और सादगी का विकल्प नहीं है।
रघुवंश बाबू ने उसी दिन हाथ से ही तीन ख़त-एक सामान्य पाठकों के लिए और दो बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के लिए और लिखे। इन खतों के मौजू पर यहां विस्तृत चर्चा नहीं करनी है। हर क्षेत्र में काम करने वाले हम लोग दिन-रात कितना बोलते और लिखते हैं। फिर भी हमारी बोलने और लिखने की भूख का दूर-दूर तक अंत नज़र नहीं आता।
रघुवंश बाबू के ये तीन ख़त इस सर्वग्रासी प्रवृत्ति पर भी धमाकेदार टिप्पणी हैं। लालू यादव ने अपने जवाब में रघुवंश बाबू को लिखा कि वे कहीं नहीं जा रहे। (यानी राजद छोड़ कर) लेकिन रघुवंश बाबू की जाने की तैयारी हो चुकी थी। जाना सभी को होता है।
रघुवंश बाबू के परिजनों, मित्रों और चाहने वालों को यह अफसोस रहेगा कि जाते वक्त वे हताश और आहत थे। अंत समय के ऐन पहले का उनका आचरण उनके उम्र भर के राजनीतिक व्यक्तित्व को एकबारगी फिर से आलोकित कर गया।
वर्ष 1977 में सोशलिस्ट पार्टी के जनता पार्टी में विलय के साथ राजनीतिक तौर पर भारत का समाजवादी आंदोलन समाप्त हो गया। तब से आज तक उस आंदोलन के कुछ टुकड़े मुख्यधारा की राजनीति में सक्रिय रहे हैं। राजद भी उनमें से एक है।
रघुवंश बाबू पार्टी के गठन के समय से ही राजद में रहे। उन्होंने हमेशा लालू यादव का साथ दिया। कुछ लोग इस बात पर आश्चर्य करते हैं कि अगड़े रघुवंश बाबू की समाई लालू यादव की पिछड़ावाद की मुहंफट राजनीति में कैसे संभव होती रही?
लोहिया का अगड़ी जातियों के राजनीतिक कार्यकर्ताओं से कहना होता था कि उन्हें राजनीति में पिछड़ा नेतृत्व को आगे बढ़ाने के लिए खाद बनना होगा। रघुवंश बाबू ने लालू यादव के नेतृत्व को आगे बढ़ाने में खाद का काम किया। उन्होंने न अपनी संतानों को राजनीति में आगे बढ़ाया, न राजनीति को संपत्ति बनाने का जरिया बनाया।
उनके जानने वाले बताते हैं कि सामंती अहंकार उन्हें छू भी नहीं गया था। यह अलग कहानी है कि लालू यादव समेत लगभग सभी पिछड़े और दलित नेता सत्ता पाते ही सामंती अहंकार और आचरण का शिकार हो जाते हैं।
रघुवंश बाबू मुख्यधारा की राजनीति में सक्रिय थे, लेकिन यह भली-भांति जानते थे कि समाजवादियों की एक जमात नवउदारवाद के बरक्स वैकल्पिक राजनीति के संघर्ष में लगी है। उस राजनीतिक धारा के सिद्धांतकार वरिष्ठ समाजवादी नेता किशन पटनायक (30 जुलाई 1930-27 सितंबर 2004) का निधन भुवनेश्वर में हुआ था।
उनकी एक शोकसभा दिल्ली में भी आयोजित की गई थी, जिसमें बड़ी संख्या में राजनीतिक कार्यकर्ता और बुद्धिजीवी शामिल हुए थे। रघुवंश बाबू ने शोकसभा में उपस्थित होकर किशन जी को श्रद्धांजलि दी थी। मुख्यधारा की राजनीति से ऐसा करने वाले वे अकेले नेता थे।
रघुवंश बाबू ने सामान्य पाठकों के लिए लिखे गए ख़त में लोहिया के एक विचार ‘राजनीति मतलब बुराई से लड़ना, धर्म मतलब अच्छाई करना’ का हवाला देते हुए कई बातें लिखी हैं। उनमें से एक है कि पार्टी के जिन पोस्टरों पर पांच प्रेरक नेताओं-गांधी, जयप्रकाश नारायण, लोहिया, बाबा साहेब और कर्पूरी ठाकुर के चित्र छपते थे, उन पर अब परिवार के पांच सदस्यों के चित्र छपते हैं।
यह उनकी पीड़ा का इजहार होने के साथ दरअसल एक तरह की स्वीकारोक्ति है। जीवन भर ‘सामंतवाद, जातिवाद, वंशवाद, परिवारवाद, सम्प्रदायवाद’ के खिलाफ समाजवाद की राजनीति करने का कोई फायदा नहीं हो पाया।
रघुवंश बाबू आपने अपना काम पूरी निष्ठां के साथ किया। सत्ता की मुख्यधारा की राजनीति करते हुए भी आप में समाजवाद की आभा बनी रही। आपको सलाम और विनम्र श्रद्धांजलि।
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी के शिक्षक और सोशलिस्ट पार्टी इंडिया के पूर्व अध्यक्ष हैं)