धर्म का अर्थ होता है—धारण, अर्थात जिसे धारण किया जा सके वही धर्म है, जो कर्म प्रधान है। गुणों को जो प्रदर्शित करे वह धर्म है। धर्म को गुण भी कह सकते हैं। धर्म शब्द में गुण अर्थ केवल मानव से संबंधित नहीं। पदार्थ के लिए भी धर्म शब्द प्रयुक्त होता है यथा पानी का धर्म है बहना, अग्नि का धर्म है प्रकाश, उष्मा देना और संपर्क में आने वाली वस्तु को जलाना।
व्यापकता के दृष्टिकोण से धर्म को गुण कहना सजीव, निर्जीव दोनों के अर्थ में नितांत ही उपयुक्त है। धर्म सार्वभौमिक होता है। पदार्थ हो या मानव पूरी पृथ्वी के किसी भी कोने में बैठे मानव या पदार्थ का धर्म एक ही होता है। उसके देश, रंग रूप की कोई बाधा नहीं है। धर्म सार्वकालिक होता है, यानी कि प्रत्येक काल में युग में धर्म का स्वरूप वही रहता है।
धर्म कभी बदलता नहीं है। उदाहरण के लिए पानी, अग्नि आदि पदार्थ का धर्म सृष्टि निर्माण से आज पर्यन्त समान है। धर्म और सम्प्रदाय में मूलभूत अंतर है। धर्म का अर्थ जब गुण और जीवन में धारण करने योग्य होता है तो वह प्रत्येक मानव के लिए समान होना चाहिए। जब पदार्थ का धर्म सार्वभौमिक है तो मानव जाति के लिए भी तो इसकी सार्वभौमिकता होनी चाहिए।
धर्म मनुष्यों के बनाए हुए नियमों, सिद्धांतों और आज्ञाओं का आधार है। मनुष्य एक प्रकार के धर्म के अंधकार में और धर्म के घमंड में जीवन जी रहा है। धर्म की प्रमुख शिक्षा शारीरिक नियमों पर आधारित है, जैसे क्या खाना है क्या नहीं खाना है। क्या पहनना है, क्या नहीं पहनना है। धर्म एक प्रकार के शारीरिक रोकथाम की शिक्षा देता है, जो मनुष्य के किसी काम की नहीं।
धर्म शारीरिक नहीं परन्तु आत्मिक क्षेत्र का भाग है। परंतु धर्म में आत्मिक जीवन की बात नहीं सिर्फ और सिर्फ शारीरिक नियम ही हैं। इसलिए धर्म मनुष्यों का बनाया हुआ सिद्धांत है। धार्मिकता धर्म का विपरीत है। धार्मिकता परमेश्वर के बनाए हुए नियमों, सिद्धांतों और आज्ञाओं का आधार है। धार्मिकता आपको धर्म के बंधनों से छुटकारा प्रदान करती है।
धार्मिकता शारीरिक नियम पर आधारित नहीं है परंतु आत्मिक जीवन पर आधारित है। धार्मिकता शारीरिक सिद्धांतों पर आधारित नहीं है परंतु धार्मिकता आत्मिक सिद्धांतों पर आधारित है जो परमेश्वर की ओर से है। धार्मिकता का संस्थापक परमेश्वर है। परमेश्वर ने धर्म नहीं धार्मिकता को बनाया है। परमेश्वर ने मनुष्य को धर्म नहीं धार्मिकता दी है।