सत्य ऋषि
जिज्ञासा मानवीय स्वभाव है। इसी स्वभाव की वजह से मनुष्य ने संदेह करना शुरू किया और उससे उठने लगे प्रश्न। हर किसी के पास प्रश्नों का भंडार होता है। और ये प्रश्न सत्य की खोज के लिए होते हैं। सत्य की खोज के लिए ही गुरुकुल की व्यवस्था की गई थी। गुरुकुल की शिक्षा व्यवस्था ही प्रश्नों पर आधारित रही है। गुरुकुल में किसी की शिक्षा तब तक शुरू नहीं हो पाती थी, जब तक उसके मन में प्रश्न नहीं उठते थे।
गुरुकुल की व्यवस्था में पहले शिष्य को भिक्षाटन आदि मोटे काम दिए जाते थे। उन कामों को करते करते शिष्य के मन में प्रश्न उठ जाते थे—गुरु जी यह यज्ञ क्यों करते हैं? गुरु जी का उत्तर होता था—इंद्र के लिए। शिष्य का प्रश्न होता था—इंद्र कौन हैं? हमने तो उन्हें कभी देखा नहीं है…आदि आदि। यहां तक कि उपनिषदों की रचना ही शिष्य के प्रश्नों पर आधारित थी।
दरअसल, ये ऋषि वैज्ञानिक होते थे, जो सत्य की खोज में लगे रहते थे। उन पर संपूर्ण समाज की जिम्मेदारी थी। सत्य की खोज करना। फिर उसे सिद्धांत का रूप देना और उन्हें कोड में निबद्ध करना, ताकि उनकी खोज का लाभ कोई और न उठा पाए।
कोडबद्ध सिद्धांतों को ही मंत्र कहा गया। मंत्रों के विशाल संग्रह को वेद कहा गया। वेद चार हैं—ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद। इनमें ऋग्वेद पहला, सबसे बड़ा और दुनिया का प्राचीनतम ग्रंथ है। इस आधार पर कहा जा सकता है कि ऋग्वेद के ऋषियों ने सबसे पहले सत्य को खोजा और उसी के आधार पर तमाम सामाजिक सिद्धांत प्रचलित हुए।