हर भारतीय परिवार की एक तमन्ना होती है कि कम से कम उसके एक सदस्य को नौकरी मिल जाए। जब तक नौकरी नहीं मिलती, पूरा परिवार तनाव में रहता है। अब तो शीदी ब्याह की संभावना भी तभी बन पाती है, जब युवक कोई न कोई नौकरी करने लगता है। लेकिन हम जिस तनाव की चर्चा करने जा रहे हैं, वह इन सारे तनावों से बड़ा है।
अंग्रेजी की एक कहावत है—मैन लिव्स फार बेटर टुमारो। यानी व्यक्ति बेहतर कल के लिए जीता है। शायद उसी को कहते हैं अच्छे दिन जो अब एक राजनीतिक शब्द बन चुका है। राजनीति की भाषा में इसी को चुनावी जुमला कहा जाता है। केंद्र में भाजपा की सरकार बनने से पूर्व इसी जुमले का इस्तेमाल करते हुए कहा गया था कि अच्छे दिन आएंगे।
क्या किसी के अच्छे दिन आए? अच्छे दिन का मतलब जो मैं समझता हूं, उसके अनुसार जो पैदल चल रहा है, वह साइकिल पर आ जाए और जो साइकिल से चल रहा है, वह मोटरसाइकिल पर आ जाए। इसी प्रकार जो मोटरसाइकिल से चल रहा है, वह कार पर आ जाए और कार वाला हवाई जहाज से चलने लगे। शायद राजनीतिक जुमला चलाने वालों ने भी यही समझा हो। क्योंकि कहा गया था कि अब हवाई भाड़ा इतना कम हो जाएगा कि हवाई चप्पल वाले हवाई जहाज से चलने लगेंगे।
कोरोना काल में लोगों के सपने एयर क्रैश के शिकार हो गए हैं। ठीक उसी प्रकार जैसे हमारा देश पांच ट्रिलियन अर्थव्यवस्था के सपने देख रहा था, लेकिन अब लोगों की जान बचाने और भोजन की व्यवस्था करने के संघर्ष में लग गया है। लोगों के मन में एक ही सवाल है—कब खत्म होगा कोरोना? कब आएगी वैक्सीन? कब आर्थिक गतिविधियां पटरी पर आएंगी?
वैसे तो देश में बेरोजगारों का न तो कोई डाटा तैयार किया गया है और न ही कोई सर्वे हुआ है। फिर भी कहा जा रहा है कि कोरोना काल में लगभग 10 करोड़ लोगों ने नौकरियां गंवाई हैं। अब नौकरियां गंवाने वालों के परिजन उनसे पूछ रहे हैं—कब कमा के लाओगे? अब बेचारा क्या जवाब दे? जाहिर है कि इस प्रश्न से वह तनाव में चला जाएगा।
देश के विभिन्न क्षेत्रों में जो लोग आत्महत्या कर रहे हैं, कहीं न कहीं उसके तार कमाई खत्म होने और अंधकारमय भविष्य के तनाव से जुड़ा हुआ है। इस कमाने वाले वर्ग से तमाम ऐसे लोग जुड़े रहे हैं जिन्हें इसी वर्ग की वजह से रोजगार मिला हुआ था। अब जब इसी वर्ग की हालत खराब है तो उससे जुड़े लोग कहां से कमाएंगे?
इस गंभीरता को सरकार ने भांप लिया था। शायद यही वजह है कि सरकार को 20 लाख करोड़ रुपये का आर्थिक पैकेज जारी करने की घोषणा करनी पड़ी। लेकिन पैकेज में देश के उस वर्ग को स्थान नहीं मिल पाया, जो सिर्फ और सिर्फ नौकरी कर सकता है। सरकार ने कहा—बिना गारंटी का लोन लेकर कारोबार शुरू करो। इसी संदर्भ में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लोकल और वोकल का नारा दिया था।
लेकिन लोकल और वोकल को सफल बनाने के लिए देश के लोगों को समझना होगा। यह पता लगाना होगा कि किस काबिलियत के लोग क्या कर सकते हैं। उसी के आधार पर मानव संसाधन को व्यवस्थित किया जा सकता है। लोकल वोकल के अनुरूप संसाधन जुटाने होंगे और उसी के अनुरूप इंफ्रास्ट्रक्चर खड़ा करना होगा।