सी एस राजपूत
नई दिल्ली। देश के संविधान में न्यायपालिका को इसलिए हर बंधन से मुक्त बनाया गया था क्योंकि न्यायपालिका को ही एक ऐसा तंत्र माना जाता रहा है जिसके जरिये देश की हर ताकतवर संस्था पर अंकुश लगाया जा सकता है। जो सरकार चुनकर आती है, उस पर भी। यदि देश सर्वोच्च संस्था न्यायपालिका के फैसले केंद्र सरकार या फिर पूंजीपतियों के दवाब में प्रभावित होंगे तो उंगली उठेगी ही।
जनता के मामले लटकाये रखना और पूंजीपतियों के केसों का तुरंत निपटारा होगा तो न्यायपालिका को भी संदेह के घेरे में लिया जाएगा। अब न्यायपालिका पर आरोप लगाने से लोग डर नहीं रहे हैं। खुलकर प्रतिक्रिया व्यक्त कर रहे हैं। इनमें खुद जज भी शामिल रहे हैं। वह बात दूसरी है कि प्रख्यात वकील प्रशांत भूषण इस तरह के आरोप लगाने में सबसे आगे रहे हैं।
शायद यही वजह है कि इस बार सुप्रीम कोर्ट ने प्रशांत भूषण पर अवमानना का दोष साबित कर दिया और अब उन्हें सजा देने की तैयारी है। जहां तक प्रशांत भूषण के आरोप और उन पर अवमानना का दोष साबित होने की बात है तो प्रशांत भूषण के ट्वीट को आप पढ़िए तो उसमें न्यायपालिका पर आरोप कम और एक शिकायत का भाव ज्यादा दिखाई देता है।
इस भाव का बड़ा कारण यह है कि न्यायपालिका जैसी संवैधानिक संस्था का लगातार क्षरण हो रहा है। दरअसल, प्रशांत भूषण केंद्र सरकार द्वारा संविधान की रक्षा के लिए बनाये गए तंत्रों को इस्तेमाल करने और इन तंत्रों में बैठे लोगों के गिरते आचरण पर सबसे अधिक मुखर रहते हैं।
प्रशांत भूषण के रूप में केंद्र सरकार और उसके एजेंडे का आंख मूंदकर साथ देने वाले तंत्रों के खिलाफ उठने वाली आवाज को दबाने की कोशिश हो रही है। यह एजेंडा भाजपा का ही नहीं, आरएसएस का भी है। संविधान की रक्षा के लिए बनाये गए तंत्रों में न्यायपालिका को सर्वोपरि माना जाता है।
देश की जनता उम्मीद रखती है कि कार्यपालिका, विधायिका के साथ ही मीडिया में व्याप्त भ्रष्टाचार पर न्यायपालिका अंकुश लगाती है। इतना ही नहीं, जो सरकार चुनकर आती है, उसकी निरंकुशता पर भी न्यायपालिका ही अंकुश लगाती है। जब न्यायपालिका के फैसले प्रभावित होंगे तो आरोप तो लगेंगे ही। प्रशांत भूषण एक वकील के साथ ही एक सोशल एक्टिविस्ट भी हैं।
जब अन्ना आंदोलन में देश में बदलाव की बात उठी तो प्रशांत भूषण परिवार सबसे अग्रिम पंक्ति में था। खुद उनके पिता पूर्व केंद्रीय मंत्री शांति भूषण भी। आंदोलन से निकली आम आदमी पार्टी को इसी परिवार ने एक करोड़ रुपये की आर्थिक मदद की थी। इतना ही नहीं, जब आप अपने एजेंडे से भटकी तो अपने पुराने साथी अरविन्द केजरीवाल का विरोध करने से भी प्रशांत भूषण नहीं चूके।
अब स्वराज पार्टी में बदलाव की लड़ाई में सक्रिय भूमिका निभा रहे हैं। यदि प्रशांत भूषण ने सुप्रीम कोर्ट से कोई शिकायत की है तो उसे अवमानना मान लेना व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई को कमजोर करना माना जाएगा। वैसे भी न्यायपालिका पर अब आम आदमी भी आरोप लगाने लगा है। एक अंग्रेजी लेखक ने कहा है कि भारत की न्यायपालिका पूंजीपतियों के लिए काम करती है।
वैसे भी पिछले दिनों में सुप्रीम कोर्ट ने ऐसे कई फैसले किये हैं जो केंद्र सरकार के दबाव में लग रहे थे। सुप्रीम कोर्ट के जजों के किसी आयोग के चेयरमैन बनने से भी संबंधित जज पर तरह तरह के आरोप लगते रहे हैं। राम जन्म भूमि और बाबरी मस्जिद, तीन तलाक और सबरीमाला मंदिर के फैसलों के बाद मुख्य न्यायाधीश के पद पर रहे रंजन गोगई को जब राजयसभा सदस्य बनाया गया तो सवाल तो उठेंगे ही।
यदि न्यायपालिका जनहित में काम कर रही है तो बताया जाए कि कोरोना वायरस के चलते लगाए गए लॉक डाउन में न्यायपालिका ने जनता के मौलिक अधिकारों से जुड़े कितने मामलों का निस्तारण किया? सुप्रीम कोर्ट ने प्रभावित लोगों को क्या राहत दी? उलटे फीस मामले में सुनवाई करने से ही मना कर दिया गया।
चंडीगढ़ हाई कोर्ट ने तो फीस देने का आदेश भी पारित कर दिया। न्यायपालिका जनहित के कितने मामलों का निपटारा कर रही है? देश में मजीठिया वेज बोर्ड मामला सबसे बड़ा उदाहरण है। प्रिंट मीडिया हॉउसों के मालिकों का मजीठिया वेज बोर्ड न देना सुप्रीम कोर्ट की अवमानना नहीं हैं क्या?
इसे क्या कहा जायेगा कि इन सबके बीच प्रशांत भूषण की टिप्पणी (शिकायत) अदालत में अवमानना मान ली गई। यदि प्रशांत भूषण की टिप्पणी अवमानना है तो फिर सुप्रीम कोर्ट के ही चार जजों ने दिल्ली में एक प्रेस कांफ्रेंस आयोजित कर मुख्य न्यायाधीश पर जो आरोप लगाए थे, वे क्या थे? उस समय तो इनमें से किसी भी न्यायमूर्ति के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की गई।
जग जाहिर है कि सुप्रीम कोर्ट के चार जजों, जस्टिस चेलमेश्वर, जस्टिस रंजन गोगोई, जस्टिस कुरियन जोसेफ और जस्टिस मदन बी लोकुर ने 12 जनवरी, 2018 को प्रेस कांफ्रेंस आयोजित कर सुप्रीम कोर्ट की कार्रवाई और कार्यप्रणाली पर खुल कर सवाल उठाए थे। क्या यह सुप्रीम कोर्ट की अवमानना नहीं थी?
इन जजों ने तो राजनीतिक रूप से संवेदनशील मामले क्यों एक ही बेंच को सौंपे जाने पर सवाल उठाये थे। उस समय जज लोया की संदिग्ध परिस्थितियों मृत्यु का मामला भी उठा था। यह भी अपने आप में एक सवाल है कि उन्हीं चार जजों में से एक जस्टिस रंजन गोगोई भी थे, जो बाद में देश के सीजेआई बने और अब राज्य सभा सदस्य।
रंजन गोगोई पर तो सीजेआई बने रहते वक्त यौन उत्पीड़न के भी आरोप लगे। इसका उल्लेख, प्रशांत भूषण के मामले में, पैरवी करते समय सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील दुष्यंत दवे ने अदालत में भी उठाया था। अंग्रेजी की एक बेहद लोकप्रिय कहावत कि ‘शो मी योर फेस, आई विल शो यू द रूल’, अक्सर नौकरशाही का एक मजाकिया मुहावरा है।