![Vyas and commentators who decode mantras are called](https://i0.wp.com/infopostnews.in/wp-content/uploads/2020/09/mantro.jpg?fit=492%2C260&ssl=1)
सत्य ऋषि
मंत्रों को डीकोड करना आसान नहीं होता। उन्हें वही डीकोड कर सकता है, जो मंत्रों के दृष्टा ऋषियों की चेतना के स्तर का व्यक्ति हो। जिन्होंने मंत्रों को डीकोड किया वे व्यास अथवा भाष्यकार कहलाए। भाष्य का मतलब कोई नई बात न कहकर कही गई बात को समझाना।
जैसा कि आप जानते हैं कि महाभारत के रचयिता व्यास महाराज हैं। वेदों के रचयिता को भी वेदव्यास कहा जाता है। इसलिए व्यास कोई व्यक्ति नहीं, पदवी है। यानी ऐसा व्यक्ति जिसने मंत्रों को डीकोड कर उसका विस्तार कर दिया। व्यास का एक अर्थ विस्तार भी होता है।
दरअसल, प्राचीन काल के लोगों में ईश्वर और गुरु के प्रति इतनी आस्था होती थी कि वे यह मानते ही नहीं थे कि वे कोई रचना कर सकते हैं। उनकी दृष्टि में रचयिता एकमात्र ईश्वर और गुरु हो सकता है। वे तो किसी भी रचना के निमित्त मात्र होते हैं। यानी ईश्वर ही उनके शरीर का इस्तेमाल कर रचना करता है। इसलिए वे किसी भी रचना को ईश्वर रचित मानते थे और उसके साथ कभी भी अपना नाम नहीं जोड़ते थे।
यह अलग बात है कि आज कल छोटे छोटे कार्यों का श्रेय लेने की होड़ सी लगी रहती है। अगर किसी ने मंदिर में पंखा दान कर दिया तो उस पर वह अपना नाम, पता और अपनी कंपनी तक का नाम लिखवा देता है। श्रेय न लेने वाले अपना अस्तित्व भगवान से अलग नहीं मानते थे। क्योंकि श्रेय लेने का मतलब हुआ कि आपने अपने को सीमित कर लिया।
दरअसल, हम सत्य की खोज पर चर्चा कर रहे हैं। वास्तव में सत्य को खोजने की जरूरत नहीं पड़ती। सत्य सदा सर्वदा उपलब्ध रहता है। खोज झूठ के लिए होती है। अगर आपको झूठ बोलना है तो कम से कम दस बहानों पर रिसर्च करनी होगी। क्योंकि आपको हमेशा चिंता लगी रहती है कि अगर झूठ पकड़ लिया गया तो उसे छिपाने के लिए अगला कौन सा झूठ बोलना है?
लेकिन अब उसकी भी जरूरत खत्म होती जा रही है। क्योंकि विज्ञान और तकनीक ने एक ऐसी मशीन ईजाद कर ली है, जो झूठ को पकड़ सकती है। उसी को लाई डिटेक्टर कहते हैं। आपराधिक मामलों की खोजबीन में इस मशीन का उपयोग किया जाता है। वास्तव में सत्य या झूठ बोलते समय शरीर में एक विशेष स्पंदन होता है, जिससे मशीन झूठ को पकड़ लेती है।
सत्य का संबंध स्वाभाविक धर्म से भी है। इसी संदर्भ में गोस्वामी तुलसीदास ने लिखा था—धर्म न दूजा सत्य समाना। वास्तव में, हम सभी सत्य धर्मी ही होते हैं। एक छोटा बच्चा प्राय: झूठ नहीं बोलता। लेकिन जैसे जैसे उम्र बढ़ती है, वह दुनियादारी के संपर्क में आने लगता है। और यह दुनियादारी ही किसी को झूठ बोलने के लिए मजबूर करती है।
शायद यही वजह है कि प्राचीन काल में शिक्षा व्यवस्था के केंद्र जंगलों में स्थापित गुरुकुल होते थे। उस समय विद्यार्थी को शिक्षा के लिए अपना घर छोड़ना पड़ता था और उसे गुरुकुल में शिक्षा दी जाती थी। गुरुकुल पर दुनियादारी की छाया नहीं पड़ने दी जाती थी और आगाह किया जाता था कि अगर एक बार भी झूठ बोला तो जीवन भर के पुण्य नष्ट हो जाएंगे। जाहिर है कि सत्य को पाने के लिए पहले सत्य बोलने की आदत डालनी होगी।
इसी बात पर जोर देने के लिए गोस्वामी तुलसीदास ने लिखा था—सत्य वचन आधीनता, पर तिय मातु समान। एतनेउ पर हरि न मिलैं, तुलसी झूठ जबान।। अर्थात, सत्य बोलने वाले, अपने को ईश्वर के अधीन समझने वाले और पराई स्त्री को मां के समान समझने वाले को यदि ईश्वर यानी सत्य का साक्षात्कार न हो तो समझ लीजिए कि तुलसी झूठ बोलता है। यह है सत्य की महत्ता। हम सत्य की खोज पर चर्चा करते रहेंगे। आज इतना ही। तब तक के लिए सत्य को प्रणाम।