हिंदी साहित्य का रीति काल संवत 1700 से 1900 तक माना जाता है। यानी 1643 ई. से 1843 ई. तक। रीति का अर्थ है बना बनाया रास्ता या बंधी-बंधाई परिपाटी। इस काल को रीतिकाल कहा गया, क्योंकि इस काल में अधिकांश कवियों ने श्रृंगार वर्णन, अलंकार प्रयोग, छंद बद्धता आदि के बंधे रास्ते की ही कविता की।
हालांकि घनानंद, बोधा, ठाकुर, गोबिंद सिंह जैसे रीति-मुक्त कवियों ने अपनी रचना के विषय मुक्त रखे। केशव (1546-1618), बिहारी (1603-1664), भूषण (1613-1705), मतिराम, घनानन्द, सेनापति आदि इस युग के प्रमुख रचनाकार रहे।
आधुनिक काल का हिंदी साहित्य पिछली दो सदियों में विकास के अनेक पड़ावों से गुज़रा है। उसमें गद्य और पद्य में अलग अलग विचार धाराओं का विकास हुआ। काव्य में इसे छायावादी युग, प्रगतिवादी युग, प्रयोगवादी युग और यथार्थवादी युग कहा गया। गद्य में इसको भारतेंदु युग, द्विवेदी युग, रामचंद शुक्ल और प्रेमचंद युग और अद्यतन युग का नाम दिया गया।
अद्यतन युग के गद्य साहित्य में अनेक ऐसी साहित्यिक विधाओं का विकास हुआ, जो पहले या तो थीं ही नहीं या फिर इतनी विकसित नहीं थीं कि उनको साहित्य की एक अलग विधा का नाम दिया जा सके। जैसे डायरी, यात्रा विवरण, आत्मकथा, रूपक, रेडियो नाटक, पटकथा लेखन, फ़िल्म आलेख आदि।
नव्योत्तर काल की कई धाराएं हैं-पहली पश्चिम की नकल को छोड़ एक अपनी वाणी पाना, दूसरी अतिशय अलंकार से परे सरलता पाना, तीसरी जीवन और समाज के प्रश्नों पर असंदिग्ध विमर्श।
कंप्यूटर के आम प्रयोग में आने के साथ हिंदी में कंप्यूटर से जुड़ी नई विधाओं का भी समावेश हुआ है। जैसे-चिट्ठालेखन और जालघर की रचनाएं। हिन्दी में अनेक स्तरीय हिंदी चिट्ठे, जालघर और जाल पत्रिकाएं हैं।
यह कंप्यूटर साहित्य भारत में ही नहीं, विश्व के हर कोने से लिखा जा रहा है। इसके साथ ही अद्यतन युग में प्रवासी हिंदी साहित्य के एक नए युग का आरंभ भी माना जा सकता है।