आजादी अगर खोती है तो उसे दोबारा पाना बहुत कठिन होगा। उससे आसान है कि हम पूंजीवाद के बारे में अपनी धारणाओं को निर्णायक रूप से बदलें। भारत और तीसरी दुनिया के लिए आजादी के क्या मायने हैं और क्यों उपनिवेशवादी वर्चस्व से आजादी हासिल करने के बावजूद गुलामी फिर से कायम हो रही है, इस पर लोहिया के बाद सबसे प्रखर राजनीतिक चिंतन किशन पटनायक ने किया है।
नब्बे के दशक से नई आर्थिक नीतियों के रूप में शुरू हुए नवसाम्राज्यवादी हमले के मुकाबले की ठोस राजनीति खड़ी करने की लगातर कोशिश भी उन्होंने की। एक माहौल बना भी कि नई आर्थिक नीतियों के खिलाफ सन्नद्ध हुए छोटे, एक मुद्दे पर स्थानीय स्तर पर होने वाले जनांदोलनों को जोड़ कर नवउदारवाद के खिलाफ वैकल्पिक राजनीति का निर्माण किया जाए। दलित, आदिवासी और शूद्र नेतृत्व आगे आए और उसकी अगुआई करे। लेकिन विदेशी धन पर पलने वाले एनजीओपरस्तों, जिनमें कई प्रमुख जनांदोलनकारी भी शामिल हैं, ने उनके प्रयासों को फलीभूत नहीं होने दिया।
चर्चा को समाप्त करने से पहले किशन पटनायक के महत्वपूर्ण और चर्चित निबंध ‘गुलाम दिमाग का छेद’ से एक उद्धरण द्रष्टव्य है, ‘‘हमारे जितने राष्ट्रीय बुद्धिजीवी हैं (जिस तरह से कुछ अंगरेजी अखबारों को राष्ट्रीय अखबार कहा जाता है, उसी तरह कुछ अंगरेजी वाले बुद्धिजीवियों को राष्ट्रीय बुद्धिजीवी कहा जा सकता है) उनमें कुछ अपवादों को छोड़ कर किसी ने यह नहीं माना है कि 1757 के प्लासी-युद्ध में पराजय के कारण भारत बरबाद हो गया, उसकी अपूरणीय क्षति हुई।
‘आजादी खोना बुरी बात तो है ही, लेकिन … ’। ‘लेकिन’ के लहजे में हमारा बुद्धिजीवी ऐसी बातें कहने लगेगा मानो आजादी खोना कोई पछतावे की बात नहीं है, उसकी कीमत पर हमने इतना सारा फायदा हासिल किया है कि हमें अंगरेजों के प्रति कृतज्ञ होना चाहिए कि उन्होंने हमें दास बनाया।
‘‘भारत के कितने अंगरेजी लिखने-बोलने वाले बुद्धिजीवी हैं जो भारत के आधुनिकीकरण के लिए अंगरेजी हुकूमत को श्रेय नहीं देते? जो यह नहीं मानते कि अगर भारत पर ब्रिटिश हुकूमत नहीं होती तो भारत आधुनिक ज्ञान-विज्ञान और अंगरेजी भाषा का उतना फायदा नहीं उठा पाता, जितना वह आज उठा रहा है? अपवाद के तौर पर ही ऐसे लोग मिलेंगे।
1857 की असफल क्रांति के बारे में हमारे कुछ प्रसिद्ध इतिहासकारों ने लिख दिया है कि जो हुआ, वह अच्छा ही हुआ। अगर 1857 की क्रांति सफल हो जाती तो भारत अज्ञान के अंधकार और अंधविश्वाैस के गर्त में डूबा रह जाता ऐसा मानने वालों के मस्तिष्का के बारे में सोचना पड़ेगा। प्रश्नऔ यह है कि कहीं उनके मस्तिष्कू में कोई छेद तो नहीं हो गया है, अन्यथा सामने पड़े हुए तथ्यों को वे कैसे नजरअंदाज कर देते हैं। उनके सामने यह तथ्य है कि जापान और चीन यूरोपीय हुकूमत के अधीन नहीं रहे। क्या चीन और जापान का आधुनिकीकरण भारत से कम हुआ है?’’ (‘विकल्पहीन नहीं है दुनिया’, पृ. 22)
जहिर है, हमारी आधुनिकता और आधुनिकीकरण की समझ इस तरह की बनी है कि भारत की स्वतंत्रता या स्वतंत्र भारत की जगह उसमें नहीं बन पाती। यह जटिल समस्या है जिसके समाधान के लिए सभी बौद्धिक समूहों और राजनीतिक पार्टियों के समग्र और गंभीर उद्यम की जरूरत है। इतिहास में हो चुकी गलतियों को अनहुआ नहीं किया जा सकता।
लेकिन उनसे शिक्षा कभी भी ली जा सकती है। प्रसिद्ध कथन है, जो इतिहास से सबक नहीं सीखते, वे उसे दोहराने को अभिशप्तक होते हैं। हमें इतिहास से यह सबक लेना होगा कि उपनिवेशवाद का विरोध किए बगैर नवसाम्राज्यवाद का विरोध नहीं किया जा सकता।