सी एस राजपूत
नई दिल्ली। देश की हर समस्या को कोरोना महामारी पर थोप दिया जा रहा है। लेकिन क्या किसी सांसद, विधायक या फिर किसी ब्यूरोक्रेट्स का कोई खर्च कम हुआ है? क्या किसी पूंजीपति के सुविधाभोगी जीवन में कोई कमी आई है? आम आदमी मर रहा है। कुछ लोग नौकरी जाने से तनाव में मर रहे हैं तो कुछ भुखमरी से। कुछ कोरोना से मर रहे हैं तो कुछ लॉक डाउन से पैदा हुई गंभीर बीमारी से।
जो लोग कोरोना को महामारी बता रहे हैं, वे यह भी समझें कि कोरोना विदेश से आया है न कि किसी गरीब के घर से। 30 जनवरी को हमारे देश में कोरोना का पहला केस आ गया था। उसके बाद यदि कोरोना को रोकने के कारगर प्रयास नहीं हुए तो इसके लिए मोदी सरकार जिम्मेदार है। यदि सरकार कोरोना को रोकने के प्रति गंभीर होती तो गुजरात में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का कार्यक्रम न् होता।
दिल्ली में तब्लीगी जमात का भी कार्यक्रम नहीं होता। ताली और थाली बजवाने के बजाय कोरोना को रोकने के कारगर प्रयास होते। मोदी सरकार ने दूसरे देशों से तुलना कर अपने भोंपू मीडिया से यह जरूर कहलवाना शुरू जरूर कर दिया है कि मोदी ने लोगों को बचा लिया। भारत कोरोना संक्रमण के मामले में नम्बर एक बनने जा रहा है।
कोई चैनल या फिर अखबार यह बताने का साहस नहीं कर पा रहा है कि मोदी ने लोगों को मरवा दिया। हर क्षेत्र में काम धंधे ठप्प हो गए हैं। और मोदी सरकार है कि इस संकट के समय में गरीबों की मदद करने के बजाय उन्हें मारने पर उतारू है। दिल्ली में रेलवे ट्रैक के करीब 72 किलोमीटर तक झुग्गी झोपड़ी को उजाड़ने पर तुली है।
बाकायदा सुप्रीम कोर्ट से इनको खाली करने का आदेश दिलवा दिया है। जो लोग मोदी को गरीब का बेटा बोलकर बचाव करते हैं, वे यह भलीभांति संमझ लें कि यह व्यक्ति गरीबों का सबसे बड़ा दुश्मन है। इनके दोस्त अडानी और अम्बानी जैसे लोग हैं। जाति और धर्म के नाम पर कब तक बंटेंगे आप? अपने बच्चों की जान और भविष्य के बारे में कब सोचेंगे? न नोकरी, न धंधा, न सुरक्षा, न पेंशन, न स्वास्थ। यह स्थिति हो गई है लोगों की।
इस परिस्थिति के लिए देश के विपक्ष को भी बराबर का जिम्मेदार माना जाना चाहिए। जो लोग इन परिस्थितियों में कमजोर पड़कर गलत कदम उठा रहे हैं, वे हिम्मत रखकर यह सोचें कि यह देश पूंजीपतियों, राजनेताओं और ब्यूरोक्रेट्स के बाप का नहीं है। इस देश के हर संसाधन पर हर किसी का बराबर का हक है।
आज यदि किसी व्यक्ति या उसके परिवार के भूखे मरने की नौबात आ गई है तो समझिए कि किसी न किसी ने हक जरूर मार रखा है। अपने हक के लिए लड़ना होगा। यदि भूखे मरने की नौबत आ गई है तो अब नहीं लड़ेंगे तो कब? यह समय इंक़लाब करने का है। कमजोर होने का नहीं। जो लोग देश नहीं चला पा रहे हैं उन्हें खदेड़ने की योजना बनानी होगी।